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________________ ३७२ श्रनेकान्त चित्त होकर उनको पापमें ही पड़ा रहने देना चाहता वह तो आप ही धर्मसे अनजान और दीर्घ संसारी है । धर्मका द्वार तो सब ही के लिये खुला रहना चाहिये और जितना कोई ज्यादा पापी है उतना ही ज्यादा उसको धर्मका स्वरूप समझाने की कोशिश करना चाहिये । यही वीर भगवानकी कल्याणकारी शिक्षा थी, जो सर्व प्रिय हो जाती थी । [फाल्गुन वीर निर्वाणसं० २४६६ वह इसके बाद मिथ्यादृष्टि हो जाता है और फिर दोबारा संभलने से ही सम्यक श्रद्धानी होता है । धर्मका स्वरूप समझाते हुवे वीर भगवान्ने यह भी बताया था कि, धर्म कोई नौकरी नहीं है जो किसी की आज्ञाको पालन करनेसे ही निभ सकती हो या फौज़की कवायद नहीं है जो शरीर के विशेषरूप साधन सेा सकती हो। या कोई कुशता नहीं है जो शरीरको आग में तपाने, तरह तरहका कष्ट पहुँचाने, दुबला पतला और कमज़ोर बनाने या धूप में सुखाने और भूखा मारने से बन जाता हो । धर्म तो वस्तुके असली स्वभावका नाम है । जीवका असली स्वरूप ज्ञानानन्द है, जिसमें बिगाड़ कर और राग द्वेष और विषयकषायके उफ़ान उठते हैं। इस कारण जिस जिस तसे विषय कषायोंका जोश ठण्डा होकर जीवका राग-द्वेष दूर हो सके वह ही धर्म-साधन है । वह ही साधन अपनी अपनी अवस्था के अनुसार जैसा जिसके लिए ठीक बैठता हो वैसा ही उसको करने लग जाना चाहिये । वीर भगवान् ने भी भिन्न भिन्न साधन बताये हैं । गृहस्थियों के ११ दर्जे करके उनके अलग अलग साधन सुनाये हैं और १४ गुणस्थानोंका कथन करके मुनियों के वास्ते भी ध्यान यादिके कई दर्जे बताये हैं । फिर भी यह कथन दृष्टांतरूप बताकर हर एकका साधन उसकी ही अवस्था पर छोड़ा है । इस प्रकार साधन तो सबका भिन्न भिन्न हो गया परन्तु साँचा सबका एक यह हीं होना चाहिये कि राग-द्वेष दूर होकर हमारा जीवात्मा अपने असली स्वभाव में श्रजाय । धर्मी हो जावे, उसको समझाज़रूरी सहायता यह स्थितिकरण जो सच्चे श्रद्धानी में तो अपने धर्मसे गिर । । वीर भगवान्ने यह भी बताया था कि जिस तरह पुराना बीमार इलाज कराता हुआ कभी २ बद परहेज़ी भी कर जाता है और दवां नहीं खाता है, जिससे उस की बीमारी फिर उभर आती हैं और कभी २ तो पहले से भी बढ़ जाती है तो भी घरवाले उसका इलाज नहीं छोड़ देते हैं किन्तु फिरसे इलाज शुरू करके बराबर उस बीमारी को दूर करने की ही कोशिश में लगे रहते हैं । उस ही प्रकार अगर कोई धर्मात्मा ऊँचे चढ़कर नीचे गिर जावे तो फिर बुझाकर तसल्ली-तशफ्फी देकर और पहुँचाकर धर्म में लगा देना चाहिये भी धर्म श्रद्धानका एक ग्रङ्ग है, होना ज़रूरी है । गृहस्थियों को जाने के बहुत ही अवसर आते है इस वास्ते उनको तो स्थितिकरण के द्वारा फिर धर्म में लगा देना ज़रूरी है । किन्तु मुनि भी यदि धर्मसे भ्रष्ट हो जावे तो उसको भी फिर ऊपर उठाकर धर्म में लगा देना चाहिये । उसका छेदोपस्थापन हो जाना चाहिये। अगर ज्यादा ही भ्रष्ट हो गया हो तो दोबारा दीक्षा मिल जानी चाहिये | जिस तरह बच्चा गिर गिर कर और उठ उठ कर ही खड़ा होना सीखता है उस ही प्रकार संसारी जीव भी धर्म ग्रहण करके बार-बार गिरकर और फिर संभलकर ही पक्का धर्मात्मा बनता है। सातवें गुण स्थान से छटे में और छटेसे सातवें में तो मुनि बार-बार ही गिरता और चढ़ता है और ग्यारहवें गुणस्थान पर चढ़कर तो अवश्य ही नीचे गिर जाता है। तब गिरे हुये को फिर ऊपर न उठने दिया जाय तो काम किस तरह चले ? सबसे पहले जीवको उपशम सम्यक्त्व ही होता है, जो दो घड़ीसे ज्यादा नहीं ठहर सकता । प्रत्येक मत चलाने वालोंने और समय- समय के लीडरोंने अपने समय के सांसारिक रीति रिवाजों में भी अपने समय के अनुसार कुछ कुछ सुधार करना ज़रूरी समझा है और उनको पक्का बनानेके लिये धर्म पुस्तकों में भी उनको लिख देना जरूरी समझा है ! जो होते होते धर्म के ही नियम बन जाते हैं, और लकीर के फ़कीर दुनिया के लोग भी अपने प्रचलित रीति रिवाजोंको धर्मके अटल नियम मानने लग जाते हैं । इस प्रकार सांसारिक रीति-रिवाज धर्मका रूप धारण करके धर्म में मिल जाते हैं और यह भेद करना मुश्किल
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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