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________________ वर्ष ३, किरण ५ ] जातियाँ किस प्रकार जीवित रहती हैं ? - जब हम इतिहासके अध्ययनको जातीय जीवनका सिद्धान्त मानते हैं, तो पण्डितोंकी इस दशाको देख - कर हमको यह कहानी याद आती है कि एक चौबेजी भोजन करने यजमानके घर गये। लड़का भी साथ था। उन्होंने उससे पूछा कि न्योता जीमनेका क्या नियम है ? लड़के ने कहा कि आधा पेट खाना चाहिए, चौथाई पेट पानी के लिए और बाक़ी जगह हवाके लिए रखना ज़रूरी है । तब चौबेजीने कहा- तुम अभी बच्चे हो, के कच्चे हो । देखो, भोजनका सिद्धान्त यह है कि पूरा पेट खानेसे भर लो । पानीका गुण है कि इधरउधरले भोजनके बीच में अपना रास्ता निकाल ही लेता है। और हवाका क्या है, आई गई, न श्राई न सही । इसी प्रकार पण्डितगण तर्क और व्याकरणपर लट्टू होते | परन्तु जातीय इतिहासका चिन्ता नहीं करते, जिसके बगैर न तर्क चलेगा न कवित्त लिखे जायेंगे । "कौड़ी को तो खूब सँभाला, लाल रतन क्यों छोड़ दिया" - जातीय इतिहासको जीवित रखना जातीय जीवनका उत्तम सिद्धान्त है । प्रत्येक जातिका भाग्य उसके गुणोंपर निर्भर है । प्रत्येक जाति श्रपनी क़िस्मत की ख़ुद मालिक होती है । यदि किसी जातिके बुरे दिन आ जायँ; यदि उसका धन दौलत, प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा, राज-पाट धर्म कर्म सब मिट्टी में मिल जाय, तो उस समय उस जातिका क्या कर्तव्य है ? क्या विजयीको गालियाँ देने से उसका काम बन जाएगा ? क्या विजयी लोगोंकी बदी, वादाख़िलाफ़ी, लालच या मक्कारीको प्रमाणित कर देनेसे उस जातिका भला हो जायगा ? क्या विजयीकी निन्दा करने से उसके अवगुणोंका पूरा इलाज हो जायेगा ! क्या शब्दाडम्बर, वाक्य कौशल और डींग डप्पाल काम देगा ? क्या वाक्य चातुरी और मृदुभाषिता उसका बेड़ा ३६३ पार लगावेगी ? क्या विजयी लोगोंकी पोलिसी (कार्य प्रणाली) पर पुस्तकें लिखने और उनको दुनियाँ भरका दगाबाज़ और चालबाज़ प्रमाणित कर देनेसे ही उस गिरी हुई जातिकी मोक्ष हो जायेगी ? नहीं, कदापि नहीं । जब कोई जाति अपने देशमें दुःख पाती है, जब उसकी कन्याएँ विजयी लोगोंकी लौंडियाँ और उसके नौजवान उनके गुलाम बनाये जाते हैं, जब उसका अन्न उसके बच्चों के पेटमें नहीं पड़ता और वे भूखसे त्राहि त्राहि करते हैं, जब उसके धर्मका नाश होता है। और उसके राजा और पुरोहित विजयी लोगोंकी अर्दली में नौकर रखे जाते हैं, जब उसकी औरतोंकी इज़्ज़त विजयी लोगों की कुदृष्टिसे नहीं बच सकती और वे ऐसे देश में रहने से मौतकों बेहतर समझकर ज़हरका घूंट पीकर चल बसती हैं, जब किसी जातिकी ऐसी अप्रतिष्ठा और बदनामी होती है, तो उसके लिए श्रावश्यक है कि अपने हृदयको टटोले, अपने गुणोंकी परीक्षा करे, अपने आचरण की जाँच पड़ताल करे और मालूम करे कि वे कौनसे अवगुण हैं, जिनके कारण उसकी ऐसी गति हुई है। क्योंकि जब तक कोई जाति, जो संख्या दृष्टिले पर्याप्त प्रतिष्ठा रखती हो, लालच, काहिली, खुदगर्जी इन्द्रिय लोलुपता और बुज़दिली में गिरफ़्तार न हो, उसपर तमाम दुनियाँकी जातियाँ मिलकर चढ़ श्रायें, तो भी विजय नहीं प्राप्तकर सकतीं। ऐसी जातिको चाहिए कि उन भीतरी शत्रुओं का मुक्काबिला करे जो उसके जीवनको घुनकी तरह खा रहे हैं । तब वह बाहरी दुश्मनों के सामने खड़ी रह सकेगी। जिसने मन जीता उसने जग जीता। और ऐसी जाति के उद्धारके लिए व्याख्यानदाताओं और लेखकों, वकीलों, बैरिस्टरों और डेलीगेटोंकी इतनी ज़रूरत नहीं है जितनी साधु सन्तोंकी, जिन्होंने अपनी इन्द्रियोंपर
SR No.527160
Book TitleAnekant 1940 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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