________________
३२२
अनेकान्त
चित्तवृत्तिके द्वारा अपना ही घात करता है, दूसरे जीवों का घात होना न होना उनके भवितव्यके श्राधीन है ।
हिंसा दो प्रकारकी होती है एक अन्तरंग हिंसा और दूसरी बहिरंग हिंसा । जब श्रात्मामें ज्ञानादि रूप भाव प्राणोंका घात करने वाली शुद्धोपयोगरूप प्रवृत्ति होती है तब वह अंतरंग हिंसा कहलाती है । और जब जीवके बाह्य द्रव्यप्राणोंका घात होता है तब बहिरंग हिंसा कहलाती है । इन्हींको दूसरे शब्दों में द्रव्यहिंसा और भाव हिंसा के नामसे भी कहते हैं । यदि तत्त्वदृष्टि से विचार किया जाय तो सचमुच में हिंसा क्रूरता और स्वार्थ की पोषक है । मनुष्यका निजी स्वार्थ ही हिंसाका कारण है । जब मनुष्य अपने धर्मसे च्युत हो जाता है तभी वह स्वार्थवश दूसरे प्राणियोंको सतानेकी चेष्टा किया करता है; श्रात्मविकृतिका नाम हिंसा है और उसका फल दुःख एवं अशान्ति है । और आत्मस्वभाव का नाम हिंसा है तथा सुख और शान्ति उसका फल है अर्थात् जब आत्मामें किसी तरहकी विकृति नहीं होती चित्त प्रशान्त एवं प्रसादादि गुणयुक्त रहता है उसमें क्षोभकी मात्रा नज़र नहीं आती, उसी समय श्रात्मा हिंसक कहा जाता है | द्रव्यहिंसा के होने पर भावहिंसा अनिवार्य नहीं है उसे तो भाव हिंसा के सम्बन्धसे ही हिंसा कहते हैं, वास्तवमें द्रव्यहिंमा तो भावहिंसासे जुदी ही है । यदि द्रव्यहिंसाको भावहिंसासे अलग न किया जाय तो कोई भी जीव हिंसक नहीं हो सकता, और इस तरहसे तो शुद्ध वीतराग परिणति वाले साधु महात्मा भी हिंसक कहे जाँयगे; क्योंकि पूर्ण हिंसाके पालक योगियों के शरीर से भी सूक्ष्म वायुकायिक आदि
* स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्व प्राण्यंतरायान्तु पश्चात्स्याद्वान वा वधः ॥ —सर्वार्थसिद्धिमें उद्धृत, पृ०२३१
[फाल्गुन, वीर- निर्वाण सं० २४६६
जीवोंका वध होता ही है, जैसा कि श्रागमकी निम्न प्राचीन गाथासे स्पष्ट है:
जदि सुद्धस्य बंधो होदि बाहिरवत्थुजोगेण । ute दु हिंगोणाम होदि वायादिवधहेदु ॥ विजयोश्यायां- अपराजितः-६ । ८०६ हिंसा और हिंसा के इस सूक्ष्म विवेचनसे जैनी अहिंसा के महत्वपूर्ण रहस्य से अपरिचित बहुतसे व्यक्तियोंके हृदय में यह कल्पना होजाती है कि जैनी अहिंसा का यह सूक्ष्मरूप व्यवहार्य है -- उसे जीवन में उतारना नितान्त कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है । अतएव इसका कथन करना व्यर्थ ही है । यह उनकी समझ ठीक नहीं है; क्योंकि जैनशासन में हिंसा और अहिंसाका जो विवेचन किया गया है वह अद्वितीय है, उसमें अल्प योग्यतावाले पुरुष भी बड़ी ग्रासानीके साथ उसका अपनी शक्ति के अनुसार पालन कर सकते हैं और अपने को
हिंसक बना सकते हैं। साथ ही, जैनधर्ममं अहिंसाका जितना सूक्ष्मरूप है वह उतना ही अधिक व्यव हार्य भी है। इस तरहका हिंसा और अहिंसाका स्पष्ट विवेचन दूसरे धर्मों में नहीं पाया जाता, इसलिये उसका जैनधर्मकी अहिंसा के आगे बहुत कम महत्व जान पड़ता है ।
जैनशासन में किसीके द्वारा किसी प्राणीके मर जाने या दुःखी किये जानेसे ही हिंसा नहीं होती। संसार में सब जगह जीव पाये जाते हैं और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं, परन्तु फिर भी, जैनधर्म इस प्राणिघातको हिंसा नहीं कहता; क्योंकि जैनधर्म तो भावप्रधान धर्म है इसीलिये जो दूसरों की हिंसा करने के भाव नहीं रखता प्रत्युत उनके बचाने के भाव रखता है उससे दैववशात् सावधानी करते हुए भी यदि किसी जीव के द्रव्य प्राणोंका वध होजाता है तो उसे हिंसाका पाप नहीं