________________
३२४
अनेकान्त
[फाल्गुन, वीरनिर्वाण सं० २४६६
श्रानेपर भयसे पहले ही अपने प्राणोंका परित्याग कर और मंकेत अवश्य किया है जो कि अावश्यक है। क्योंदेते हैं। फिर भला ऐसे दुर्बल नष्योंसे अहिंमा जैसे कि गृहस्थ अवस्था ऐसी कोई क्रिया नहीं होती जिसमें गम्भीर तत्त्वका पालन कैसे हो सकता है ? अतः जैनी हिंसा न होती हो। अत: गहस्थ सर्वथा हिंसाका बागी अहिंसापर कायरताका इल्ज़ाम लगाकर उसे अव्यव नहीं हो सकता। इसके मिवाय, धर्म-देश-जाति और हार्य कहना निरी अज्ञानता है।
अपनी तथा अपने प्रात्मीय कुटम्बी जनोंकी रक्षा करने ___जैन शासन में न्यूनाधिक योग्यतावाले मनुष्य में जो विरोधी हिंसा होती है उसका भी वह त्यागी नहीं अहिंसाका अच्छी तरहसे पालन कर सकते हैं, इसीलिये हो सकता। जैनधर्ममें अहिंसाके देशअहिंसा और सर्वअहिमा जिस मनुष्यका माँसारिक पदार्थोंसे मोह घट गया अथवा अहिंसा-अणुव्रत और अहिंसा-महाव्रत आदि है और जिसकी श्रात्मशक्ति भी बहुत कुछ वि काम प्राप्त भेद किये गये हैं। जो मनुष्य पूर्ण अहिंसा के पालन कर चुकी है वह मनुष्य उभय प्रकार के परिग्रहका त्याग करने में असमर्थ है, वह देश अहिंसाका पालन करता है, कर जैनी दीक्षा धारण करता है और तब वह पूर्ण इसीसे उसे गृहस्थ, अणुव्रती, देशव्रती या देशयतीके अहिंसा के पालन करने में समर्थ होता है । और इस तरह नामसे पुकारते हैं; क्योंकि अभी उसका साँसारिक देह- से ज्यों ज्यों अात्म-शक्तिका प्राबल्य एवं उनका विकास भोगोंसे ममत्व नहीं छूटा है-उसकी आत्म शक्तिका पूर्ण होता जाता है त्या त्यों अहिंमाकी पूर्णता भी होती जाती विकास नहीं हुआ है-वह तो असि, मषि, कृषि, शिल्प, है । और जब आत्माको पर्णशक्तियोंका विकास हो जाता वाणिज्य, विद्यारूप षट् कर्मों में शक्त्यानुसार प्रवृत्ति करता है, तब अात्मा पूर्ण अहिंसक कहलाने लगता है। अस्तु, हुश्रा एकदेश अहिंसाका पालन करता है । गृहस्थ- भारतीय धर्मों में अहिंसाधर्म ही सर्वश्रेष्ठ है । इसकी अवस्था में चार प्रकारकी हिंसा संभव है । संकल्पी, पूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाला पुरुष परमब्रह्म परमात्म प्रारम्भी. उद्योगी और विरोधी । इनमेंसे गहस्थ सिर्फ कहलाता है। इसीलिये पाचर्य समन्तभद्रने अहिंसाको एक संकल्पी हिंसा-मात्रका त्यागी होता है और वह भी परब्रह्म कहा है *। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम प्रस जीवों की । जैन आचार्योंने हिंसाके इन चार भेदों जैन शासन के अहिंसातत्त्वको अच्छी तरहसे समझे. को दो भेदोंमें समाविष्ट किया है और बताया है, कि और उसपर अमल करें । साथ ही, उसके गहस्थ-अवस्थामें दो प्रकारकी हिंसा हो सकती है. श्रा- अपनी सर्वशक्तियों को लगादें, जिससे जनता अहिंसाके रम्भजा और अनारम्भजा । श्रारम्भजा हिंसा कूटनें, रहस्यको समझे और धार्मिक अन्धविश्वाससे होनेवाली पीसने आदि गृहकार्योंके अनुष्ठान और श्राजीविकाके घेर हिंसाका-राक्षसी कृत्यका-परित्यागकर अहिंसाकी उपार्जनादिसे सम्बन्ध रखती है; परन्तु दूमरी हिंसागृही शरण में आकर निर्भयतासे अपनी श्रात्मशक्तियोंका कर्तव्यका यथेष्ट पालन करते हुए मन-वचन-कायसे होने विकास करने में समर्थ हो सके। वाले जीवोंके घातकी ओर संकेत करती है। अर्थात् दो
वीर सेवामन्दिर, सरसावा, जि. सहारनपुर इंद्रियादि त्रसजीवोंको सँकल्पपूर्वक जान बूझकर
गृहवास सेवन रतो मन्द कषाया प्रवर्तितारम्भः । सताना या जानसे मारना ही इसका विषय है, इसीलिये
प्रारम्भजां स हिंसां शक्नोति न रक्षितुं नियमात् ॥ इसे संकल्पी हिंसा कहते है। गृहस्थ अवस्था में रहकर
श्रावकाचारे, अमितगतिः, ६, ६, ७ श्रारम्भजा हिंसाका त्याग करना अशक्य है । इसीलिये
* अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं, जैन ग्रन्थों में इस हिंसाके त्यागका आमतौरपर विधान
न सा तत्रारम्भोस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ ॥ नहीं किया है * परन्तु यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करनेकी
ततस्तसिद्धयर्थ परमकरुणो ग्रन्थमुभयं, * हिसा द्वेधा प्रोक्ताऽऽरंभानारंभजवतोदक्षः। भवानेवात्याक्षीन च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ११॥ गृहवासतो निवृत्तो द्वेधाऽपि त्रायते ताँ च ॥
वहत्स्वयंभस्तोत्रे, समन्तभद्रः।