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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पु. नं. १४९.
जैन मन्दिरों के पूजारी सेवगों
की
काली करतूतें ।
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श्री जैन पोरवाल च जैन ज्ञान भंडार
मु० पाडीन (राज.)
-मिश्रिमल जैन
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FELESSLELSEजानवब E LSSSSSSS जैनियों आप पदो अपने मित्रों को पढ़ावों ।
और कुम्भकरणी निंद्रासे जैनसमाज को जगाओ
एक वर्ष के
२५०००००० रूपये । केवल जैन मन्दिरों की पूजाई के लिये विधर्मीयों के
हाथमें जाते हुए को बचावों
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LUCULUÇUCU UCUCULULL
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rrhemamananraamRASANNADERS
दिगम्बर जैन भाइयों का अनुकरण
___ करके आपभी आत्मकल्याणार्थ स्वयं प्रभुकी पूजा करो जिन मन्दिरों की आशातना दूर करने से ही
आपका उत्थान और उन्नति होगा यह पुस्तक पंचो को चोधरियों को मुखियाँको
और नवयुकोकों आद्योपान्त पढ़नी चाहिये
समाज शुभ चिन्तक. मिश्रिमलजैन-पीपाड़ सीटी ( मारवाड़)
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सर्वत्र सुखी भवंतु लोकाः ॥
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" सेवगों हम आपके सज्जन है।" ६ " हम आपका सदैव कल्यान चाहाते है।" ! " हमारा लेख को ध्यानपूर्वक पढ़ो"
" स्वतंत्रता एक सच्चा सुख का खजाना है।" " पराधिनता एक दुःखोंकी खान है।" " तुम्हारे कारण हमको बड़ा नुकशान होता है।" " हमकों नुकशान होने परभी तुमको फायदा नहीं है" " हमारे कारण तुमकों भी बड़ा भारी नुकशान है" " निर्मौल्य-धर्मादा का देव द्रव्य खाने से तुम्हारी __ क्या दशा हुई है और भविष्यमें क्या होगा।" " तुम्हारे भाई स्वतंत्र व्यापार व हुन्नर उद्योग
कर कैसे सुखी हैं क्या तुम ऐसे नहीं कर सक्ते हो" १६ " अब मांग खाना छोडदो जैनोंको गरजहोगा तो डबल रोजगार दे कर तुमसे मन्दिर पूजावेंगा"
. " मिश्रिमल जैन" HeamDecemveevan KCAREERSE मुद्रक-शाह गुलाबचंद लल्लुभाइ, श्री महोदय प्रिन्टींग प्रेस दाणापीठ-भावनगर.
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अनार्य कृतघ्नी सेवगों
काली करतूतें
पत्रिका नम्बर १
ओसवाल और सेवगों के सम्बन्ध तूटने का मुख्य कारण " सूर्यमग प्रकाश” नामक पुस्तक है जो सेवग तेज कवि ने रची है जिसके पृष्ट ५९ में एक कवित लिखा है वही यहां पर उध्धृत किया जाता है। ऋषभदेव स्वामि का पिता नाभि राजा नृप ।
दादा अगींद्र भूप जम्बू द्वीप जानें हैं । ताके निज भ्रात शाक द्वीप राज भोगे तहां।
मेगातिथि नाम को पुराण सबमाने हैं। जा के गुरु मग विप्र भोजक कहलाते सो।
गुरु सप्त भ्रातन ने हृदय भाव ठाने हैं । जैन धर्मवालों के ऋषभआदि तिर्थकर ।
पूर्ण भगवान पद्य आदउं का माने हैं ॥ .
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(४) उपरोक्त कवितामें सेवग तेज कविने स्पष्ट लिखा है कि जैन धर्मके आदि तिथकर ( भगवान ) ऋषभदेव के दादा के गुरु मगविप्र (भोजक) थे।
जैनियो जरा आंख खोलकर देखो कि तुम्हारे ही याचक ( मांगने वाले मगते ) आज आपकी वैदरकारी से आपके ही पूज्य पुरुषो के गुरु बनने को तैयार हो रहे है । क्या आप इसको सहन कर सकते हो ? कदापि नही। अतएव एसे पाखंडीयों का पोषण करना मानो जैन धर्मका ह्रास करना है। सेवग लोग कौन है ? वह आगे की पत्रिका देखे ।
पत्रिका नम्बर २ जैन आर्य है और सेवग अनार्य हैं। सेवग लोग अपने को शाकद्वीप से आये हुए बतलाते हैं। शाकद्वीप अनार्य देश है। उस अनार्य देश से आये हुए सेवग लोग भी अनार्य है। यह बात सत्य होना भी संभव है। क्योंकि भारतीय चौरासी न्यातिके ब्राह्मणोंमें से कोई भी ब्राह्मणोंने इन अनार्य सेवगों के साथ आज पर्यन्त रोटी या बेटी व्यवहार नही किया। इतना ही नही परन्तु भारतीय ब्राह्मण अपने चौके में भी सेवगों को नहीं आने देते हैं बलकि चोका के बाहर बैठाके उपरसे रोटी डाल देते हैं। इससे यह बात साबित होती है कि सेवगलोग वास्तव में अनार्य है । शाक द्वीप में मगों के पूर्व तीन ही वर्ण होना बतलाते है। यही अनार्यों की निशानी है
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(५) सेबगलोग अपनी किताबे में लिखा है कि हम सूर्य की सन्सान है अर्थात् सूर्यने मगों को पैदा किया। अच्छा भाई विनों किसी के वीर्य तो मनुष्य पैदा हो ही नहीं सक्ते हैं । तो क्या आकाशमें घुमता हुआ सूर्यदेवने अपना वीर्य्यपृथ्वीपर डाला और उसमें कीडों की भाँती मगविप्र पैदा हुए या सूर्यनारायण ने किसी सती का ब्रह्मचार्य खण्डन कर मगों को उत्पन्न किया, जैसे सूर्यने सती कुंतिका सतीत्व भृष्ट कियाथा इस हालतमें मगो (सेवगों) का स्पृष्ट कर्त्तव्य है कि वे अपनी माता की खोज कर जनताकी शंका को दूर करे। नहीं तो जनता यह कहती है कि सेवग एक वर्णशंकर जाति और अनार्य देश से आये हुए अनार्य हैं। क्यों कि सेवगों के पिता तो सूर्य हैं पर माताका पता नहीं है । फिर आगे:
पत्रिका नम्बर ३ जैनियों के घरों में सेवगों के करने योग्य कार्य।
(१) लग्न समय दम्पति की सेज बिछाई की खेरात आती
है जिसमें दो भाग नाई के और एक भाग सेवगणी
का होता है। (२) बरात (जान ) बाहरगांव जाती हैं तब वापस
आते समय मार्ग में जीमण ( फियों) करते हैं वहां जानवाले लोग खेरात करते है उसमें भी दो भाग नाई और एक भाग सेवम का होता है।
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(३) पैरावणी ( दहेज-दायजा ) देने के समय कन्या का
पिता कुछ कमीनों को देता है उस में एक भाग नाई का;
एक भाग ढोली और एक भाग सेवग का होता है। (४) लग्न होने के दूसरे दिन कन्या का माथा गुंथाई की
खेरात में दो भाग नायण का वो एक भाग सेवगणी
का होता है। (५) पग धोवाई में नाई के अतिरिक्त कुछ सेवग को भी
दिया जाता है। (६) मुडो एटाई (झूट) में भी सेवग का भाग होता है। (७) पगे पण के नेग में एक रुपया नाई को आठ आना
सेवग को। (८) माटा की लाग में मी २-१ भाग दिया जाता है। (९) सिंधूरा की रोटियों और खाजों में भी २-१ भाग
दिया जाता है। (१०) जैनों के घर में लग्नकार्य आरम्भ होता है तब नाई,
सेवग और इन की औरतें गेंहूं, चने, लूण, मिरच, हल्दी, धाणे आदि पिसना कूटना इत्यादि काम एक मास के पूर्व करते है । बदले में धान आदि दिया
जाते हैं। (११) दीपमालिका आदि तेहवारों (पर्वो ) के दिनो में
चाररोटी नाइ, सेवग, ढोली-सरगडों को दी जाती है।
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( ७ )
(१२) विवाह की कंकुपत्रिका ग्रामोग्राम देने को सेवग जाता है। इसी प्रकार मृत्यु की चिठ्ठीयें भी देने को सेवग जाता है । - (१३) मन्दिर, उपाश्रय और धर्मशाळा में हमेश काजा - कचरा कूढा सेवग निकालता है ।
(१४) महाजन ( पंच ) किसी कार्यवश गामान्तर जावे तो सेवा - चाकरी में सेवग साथ में जाता है ।
(१५) जाती वा संघ सम्बन्धी कोई भी कार्य हो तो चाकरी मे हमेशा सेवग हाजिर रहता है ।
(१६) मृत्यु के बाद कांसा नावणीयों का बलबाकुल सेवग लेते है ।
(१७) लग्न में ढोली को बुलाने को सेवग जाता है । मृत्युके पिछे हजामत कराने को नाई को बुलाने सेवग जाता है । (१८) मोसर - टाणे में न्यात (जाति) जीमने के बाद ढोल बाजते है उस समय के दान में भी नाई, ढोली और सेवग का भाग होता है ।
उपर माफक सेवा सेवग करते है बलकि किसी २ प्रान्त में इससे भी हलके काम करते हैं । बुद्धिमान विचार कर सकते है कि उपरोक्त काम करनेवाले कमीन होते है या गुरू ?
सेवगों । अन्य लोगों की भांति जैनियों के घरों में इतनी पोल नही है कि उपरोक्त कमीनपने के कार्य करनेवालों को, जैनी, गुरू मान लें । बलकि जैनी सेवगों को त्याग * कई कई प्रान्तोंमें और भी रिवाज होतें है ।
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(८)
व रोटी आदि देते है वह उपरोक्त कामों के बदले ही देते हैं। दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं हैं। याद रखो जैनियों के पास गुरुपने का नाम भी लोगे तो तुम को बुरी हालत से निकाल देगें । जैनियों के हुकम मुवाफिक काम किया करों। बसइसमें ही तुम्हारी जीवनयात्रा समाप्त होगी।
पत्रिका नम्बर ४ महात्मा रिषभदासजी ने अपने लेखमें वर्तमान सेवगों को भाट सिद्धकर बतलाया है । वास्तव में कई सेवगो में भाट तो क्या पर कंगला और नानकशाही के लक्षण भी पाये जाते है।
जगद् प्रसिद्ध महाराणा प्रतापको संकट के समय असंख्य द्रव्य की सहायता देकर जननी जन्मभूमी मेवाडको स्वतंत्र रखनेवाला श्रीमान् वीर भामाशाह कावडिया उदयपूरवालेके यहां श्रीमान् कर्मचन्द बच्छावत बीकानेरवाला के कुटुम्ब की बरात (जान) आई थी उसी ब्याहमें भामाशाहने सेवगों को एक क्रोड रुपयों का दान दिया था जिसके उपलक्षमें सेवग लोगोंने एक कवित कहा है। शासन गज दश सात तुरी सातसौ मंगाये ।
सोना मण एक शुद्ध, रूपो मण पांच तुलाये ॥ सहस्र गाय और भैस, किरिया सातसौ करमाला।
नव हीरा दश पन्ना एक मोतीयन की माला ॥ बोसठ वर्ष पन्द्रह समय मास अगण वद पख में ।
धन्य त्याग आदि धरा उपरे क्रोड दान दिनो खमें । १ ऊंट । २ समय में कबि धोखा खाया है।
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___उपरोक्त दान देने के पश्चात पूरा एक मास भी नहीं हुआ था कि सेवगोंने भामाशाह का पुतला बना के जलाना शरू किया जो निम्न कवितसे विदित होता है।
सूरो शकर सारखो, अन्धो तूं ही ज आक । भुंडा मुहडारा भोमला, तो मांगण तलाक ॥१॥
भामा तूं भारमलको, कुल ने लगायो काट । — आदू सेवग छोडके, लारे लगाया भाट ॥२॥
मारवाड़ के सेवग मेवाड के सेक्गों को भाट बतलाते है साथ ही मेवाडके सेवग मारवाडके सेवगों को भाट कहते हैं। महात्मा रिषभदास की सोध सोलाह आना सत्य मालूम होती है। खेरवा के महाजनों के लिये सेवग कहते है:ठग ठाकुर ठक्कुराई मांडी, रुपो रंग बतावे । ___मैं तो बेटा बेटी थांरा, पिता तूं कोई जोर जमावे ॥१॥ सुणो अरज सेवग की पंचो, मा बाप थे वाजो । __मैं तो बेटा बेटी थांरा, लड़ता आपसु लाजो ॥ २॥ तिलकशी तीखो गणो, सेवग निवत जमावे ।
घोड़ा ऊंट ने कडा कंटी, लाख सिरपाव देरावे ॥३॥
उपरोक्त कथन से साफ विदित होता है कि सेवग लोग जैनों को मा बाप मानते हैं, और आप बेटा बेटी बनते हैं। आज वे ही सेवग जैनियों के गुरु बनने को तैयार हो रहे है ? क्या यह सरासर नीचता नही है ? ।
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( १० )
जोधपुर के जगद् प्रसिद्ध दिवान सिंधी जी इन्द्रराजजी के मोसर के बारे में फतेहराजजी सिंधी के लिये सेवगों ने नीच शब्द कहे और बहुत भांडा ।
1
" दुर्बलदान 'फते' नही दीनो, संघवी कुड़ो मोसरकीनो " मुलकडंड ने घृत मंगायो, इण विधि खांड मंगाई ॥ टीके दान हजारों लीना, जिनमें न्यात जिमाई || दु० १ ॥ दो पैसो में मटकी बेची, एक पैसामें हांडी ॥ फिर वेची पापड़ तरकारी, भेखत माया भांडी ॥ दु०२ ॥ साहबचन्द की जीत सदाई, घणा नगारा धूरसी । मास पांच सातों के माही, केद फताने करसी ॥ दु० ३ ॥ मिले नही फतमलको मोसर, जोधाणा में जोतां । दक्षणा नीट देवो यो दूतो, जिम रुपयो रुपयो रोतां ॥ दु० ४ ॥ भाट - कंगला और कृतघ्नी नीच मनुष्य के सिवाय ऐसे शब्द कौन कह सकते।
झोरा मगरा के पंचोने इन नीचों को कांसीकी थाली देनी बन्धकर इनका बडाही तिरस्कार कर सम्बन्ध तोड दिया । उस समय इन भाटों ने अपनी दीनता इस प्रकार दिखलाई । "सुनो अर्ज सतावीस झोरे, सब बुद्धिमंत मुलकों मखते । हम याचक तुम पिता हमारे, करडी नजर केसे करते " ॥
किसी एक स्थान पर श्री संघ एकत्र हुआ था उस समय एक सेवग आया और बकवाद करने लगा । तब उसको रोक तो उस नीचने निम्न लिखित एक कवित बनाया ।
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(११) तक आया भवानी बहान पै (संघ) आगे शियल का बहान को बेठा ही पाया ( गदह) सभा भरी शिव वहान की (बेल-बलद) शनी देवको बहान शिश धूणायो ( भंसा) आशीर्वाद को शब्द सुनी (सेवगोका कंगलापना ) तब भैरूको बहान धड के आयो (कुत्ता) धुर धुर शब्द तो बहुत कियो ( गालियां) पण सेवग को पाव तो तोड़ ही खायो ॥१॥ ___इस अनार्य नीच सेवगने श्री संघ को गदाह-बैल-भंसा
और कुत्ता तक बना दिया फिर भी कई लोग इन निंदकों का पक्ष कर बैठते है । देनेवालोंका गुण और नही देनेवालोके अवगुण करना तो इन कमीन कंगलोंका जाति स्वभाव ही है। आजकल ग्रामों में जाते है तब कहते हैं कि हम जैनियों के वहां कच्ची रसोई नही जीमते है । लेकिन अब तो ग्रामो में भी इनका सम्बन्ध तुट गया है । यदि कोई सेवग भुखा प्यासा आ जावे तो करुणादान समझकर रोटीका टुकडा खिला देते है। इसपर भी ये लोग कृतघ्नी होते हैं जिनका अन्नजल लेते हैं उन्हीं की निंदा करते हैं । भूख का कवित निम्न लिखित कहते हैं।
जाडण खाबल जन्म, उठ धोले रे आई। रही धीनावस रात, परबात बीलाडे पेठी। खरी भूख खोखरे, वहाने जाई वली बेठी। हाल हाल हरिया डांणे, हाल भूख नाथों रे गुड़े।
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(१२) कड़कती भुख कहती इसी, करसु वास कंटालिये । शाह मिल आया सामने, मुक्त भूख मुहालिये।
ऐसे सेकडों कवित जैनीयों की निंदा का इन नीच निंदकोंने बनाये है तथापि हमारे जैन भाईयों में कितनी अन्ध श्रद्धा है कि काम पडने पर इन अनार्य निंदकों का पक्ष कर न्याति में पार्टि-धड़ें-तड़ डालके पक्षपात कर बैठते है । सेवगों को जैनियों की अटकल आगई है ऐसे काम पड़ने पर एक पार्टीकों मा बाप कर लेते हैं । पर अब वह जमाना चला गया है। नवयुवक समझने लग गये है। कई ग्रामों में सेवगों का बहिष्कार कर दिया है। लग्न-ब्याह में जो त्याग देते हैं वह मन्दिरजी में जमाकर उस द्रव्य से मन्दिरजीकी अच्छी तरह से पूजा कराइ जा सकती है । जैनो ! क्या आपको अपने धर्म या जाति का तनिक भी गौरव है ? यदि है तो इन निन्दकों को शीघ्र ही दूर करो, चेतो ! सावधान हो जाओ! जरा भी प्रमाद किया तो पछताना पडेगा।
पत्रिका नम्बर ५
देवद्रव्य का दुरुपयोग. देव को अर्पण किये हुए द्रव्यको देव द्रव्य कहते है । चाहे रोकड, फल, नैवेद्य, और अक्षतादि हो सबका देवद्रव्य में समावेश होता है । देव द्रव्य को भक्षण करे, कराचे या करते हुए को अच्छा समझे या उपेक्षा करे इन सबको शास्त्र
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( १३ )
कारोने अनन्त संसारी बतलाया है इसी प्रकार ज्ञान द्रव्य ( ज्ञानकी पूजा के समय अर्पण किया हुआ द्रव्य ) गुरु द्रव्य ( गहूंली आदि ) इन द्रव्योंका भक्षण करना कराना और करते हुए को अच्छा जाने उसको अनंत काल तक संसार में भ्रमण करना पडता है । जैनी स्वयं तो उपरोक्त द्रव्यों का उपयोग निज काम में नही करते परंतु सेवगों (पूजारियों ) को दे देते हैं । बिचारे सेवग ( पूजारी ) जो अज्ञानी और लोभी है । वे धर्मादा का द्रव्य खा कर इसभव में तो गल गये और पर भव में संसार वृद्धि के पात्र बनते हैं । सेवग इतना भी नही सोचते है कि जैनी एसा निर्माल्य द्रव्य खाने में महान पाप समझते हैं तो हम इसका भक्षण कैसे करें। जैनों की दूर्दशा होने का भी यही कारण है कि वे अपने स्वार्थ के कारण देव द्रव्यादि का दुरुपयोग करते हैं । यदि जैनी तथा सेवग पूजारी - अपना भला चाहे तो देव द्रव्यादि कों भक्षण करनेमें उपयोग न करे । अतएव जो कोई भी द्रव्य देव को अर्पण करे या ज्ञानको अर्पण करे अथवा गुरु को अर्पण करे वे सब देव, ज्ञान और गुरु के निमित ही उपयोग में लाना चाहिये ।
सेवग - पुजारियों को काम के बदले में यदि कुच्छ देना है तो साधारण में से देवे क्योंकि पुजारी जो काम करते है वे सब श्रावकों की तरफ से करते हैं । आज जैनोंकी और सेवग - पुजारियों की अधोदशा जो हो रही है और मति भ्रष्ट हो रही है इसका खास कारण धर्मादा द्रव्य का दुरूपयोग करने कराने और उपेक्षा करना ही है । अतएव जैनो ! और सेवगो !
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( १४ )
चेतो! चेतो ! धर्मादा द्रव्य का दुरूपयोग करना त्याग दो ताकि आपका पतन न हो कर आप उन्नत दशा को प्राप्त कर सके।
पत्रिका नम्बर ६. पर्युषण का पेटिया
यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि मारवाड़ी समाज प्रथाचादी, रुढिके उपासक है । और रुढ़िको हानीकारक जानलेने परभी नही छोड़ते हैं। दूसरा कारण मारवाड़ी समाज का संघट्टन छिन्न भिन्न हो गया है । क्योंकि यदि ४ भाई हानीकारक रुढ़िको छोडनेका प्रयत्न करे तो ८ भाई उसके प्रतिकुल हो कर रुढि चुस्त हो जाते है अगर दोनो तरफ के लोग दृढ हो जावे तो न्याती मे तड़-घड़े पड़ जाते हैं। इसी कारण आज सुधारके : युग में भी मारवाड़ी समाज पिछड़ती जाती है ।
इसी प्रकार थोड़ा समयसे एक एसी रुड़ी पड़गई है कि पर्युषण के अन्त में अर्थात् संवत्सर के दूसरे रोज पेटीया ( आटा, आदि) मन्दिर में जाकर चढाते है । यह प्रथा बुरी तो है ही पर मंगलिक के दिन अपशुकन भी है । विधवा और रंडुओंकी वृद्धिका एक मुख्य कारण भी है । आप जानते है कि जिन भगवान वीतराग हैं उनके वहां आटा के पेटिया की क्या आवश्यक्ता है ? कुछ भी नही, पेटिया तो मृत्युके समय निकाला जाता है और उसे कुत्ते कंवे ( कागडे) खाते है । ऐसी बुरी प्रथा को रोकने के बजाय गडरिया धसान सा हो
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(१५) रहा है । हाँ इस महा मंगलकारी पर्व की पूर्ण आहुति पर तो मंगलिक कार्य होना चाहिए । नकि बूरी प्रथा का रुढीचुस्त होना । अतएव जहां २ पर आटा मन्दिर मे ले जाने की प्रथा है वह सर्वथा उठा देनी चाहिये । क्यों कि इसमे देने वाले और ग्रहण करने वाले दोनों व्यक्तिका कल्याण नहीं होता है । वरन नाश ही होता है। जब तक इस बूरी प्रथा का अनुकरण होगा तब तक गृहस्थ और पुजारी का पतन होता ही रहेगा। कई ग्रामों में ऐसा रिवाज बंद हो गया है अतएव जहां पर ऐसी प्रथा अभीतक जारी हो: वहां से सर्वथा एकदम उठा देनी चाहिये यह कार्य एक व्यक्तिका नहीं पर श्री संघ-पंचोंका और नवयुवकोंका हैं कि वे ऐसी हानी कारक रूढ़ियों को समाज से फोरन् निकाल हैं। शुभम् ।
पत्रिका नम्बर ७ प्रभुपूजा या पाखण्डियों का पोषण ।
परमेश्वर की पूजा पढ़ाना तो महान् लाभ का ही कारण हैं पर अपने चढाया हुए द्रव्यका क्या उपयोग होता हैं इस ओर बहुत कम मनुष्यों का लक्ष है । देवको अर्पण किया हुआ द्रव्य देवद्रव्य होता है, यह बात तो जैनोंका एक बच्चाभी समझ सक्ता है इस हालत में प्रभु को अर्पण किया हुआ देवद्रव्य जोरोकड़ नालेरादि सर्व पूजापा पूजारियों (सेवगों)
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( १६ )
कों देना या दीला देना क्या देवद्रव्यका दुरुपयोग करना नहीं है ? वर्तमान जैनमन्दिरोमें पूजारि नोकर प्रायः विधर्मी और नशाबाज हैं वें उसी देवद्रव्यसे भांग, गांजा, चड़स, अफीम, तमाखु, चलम, बीड़ी और आरंभ सारंभ तथा विषय वासना सेवन करते हैं इतनाही नहीं पर हमारे देवद्रव्य से मिथ्यात्व का पोषण और जैन धर्मकी निंदा होती हुई भी हम देख रहे है । क्या पूजा भणाने वालो को स्वम में भी यह ख्याल था कि हम जो द्रव्य देवकों अर्पण करते है उसीसे एसे अनर्थ होगे ? कदापि नहीं । भांग गांजादि का व्यापार करने वालोको हम व्याजसे पैसा दे तो भी हमकों पाप लगता हैं तब हमारे अर्पणकिये द्रव्यसे विधर्मी लोग अनेक प्रकार के दुर्व्यसन सेवन करते है उसका पाप हमको नहीं लगेगा ? अवश्य लगेगा । अतएव पूर्वोक्त पापोंका भागी पूजा पढ़ानेवाला ही होता हैं इसप्रकार देवद्रव्यका दुरुपयोग होनेसे पूजा भणाने वाले को कर्म निर्जरा के बदले कर्मबन्ध और पुन्यबन्धने के बजाय घोर पापबन्धनका कारण होता है । ऐसी हालतमें ज्यों ज्यों अधिक द्रव्य चढ़ाया जाता है त्यों त्यों अधिक कर्मबन्ध का हेतु होता हैं अतएव पूजाका सर्वद्रव्य (रोकड़ नालेर बदाम शकर चावलादि) देवद्रव्यमें ही जमा होना चाहिए । यदि पूजामें चढ़ाया हुआ देवद्रव्य पूजारियों को देंगे तो, पूजा पढ़ानेवाला, पूजारी और दीराने वाले पंच देवद्रव्यके भक्षी समझे जायगें और शास्त्रकारों के मतसे वेंसब अनंत संसारी होगे।
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( १७ ) यदि कोई यह कहेगा कि पूजारी मन्दिरजी का काम करता है जिसके बदले उसको पूजापा का द्रव्य दिया जाता हैं । उन महानुभावों को समझना चाहिए कि मन्दिरजीका तमाम काम करना श्रापकों के जुम्मे है और श्रावकों से सब काम न बने इसलिये ये अपनी और से नोकर चाकर रक्खते हैं उसकों यदि कुच्छ देना हैं तो श्रावक या साधारणसे दें पर देवद्रव्यसे देना और दीलाना तथा पूजारियोंको लेना मानो अपना सर्व नाश करना कराना हैं । जैनियों और पूजारियो ( सेवगो) की पतन दशाका खास कारण देवद्रव्य भक्षण करना कराना हैं । बम्बई बगैरह बहुत शेहरों और कई ग्रामों में तो पूजामें चढ़ाया हुआ रोकड़ नालेर मेवा और चावल सब देवद्रव्य में ही जमा होते हैं पर बहुत से ग्राम ऐसे भी है कि वे रूढि के उपासक जान लेने पर और समझलेने परभी हानीकारक रुढिकों नहीं छोडते है पर जरा विचार कर देखिये देवद्रव्यका दुरुपयोग करनेसे जैन और सेवगोंकी क्या दशा हुई हैं और भविष्य में क्या होगी ? इस लिये मेरा निवेदन है कि आप अपनी उन्नति और कल्याण चाहते है तो देवद्रव्य भक्षण के वज्र पापसे शीघ्र बचे अर्थात् पूजा वगैरह में चढाये हुए द्रव्य को देवद्रव्य में जमा करे। इसमें जैनों ओर पूजारियो (सेवगों) दोनों का कल्याण है। शुभम् ॥
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( १८ )
पत्रिका नम्बर ८
9- जैन मन्दिर क्या पुजारियां की जागीरी है ? -6
जागीरदार के जागीरी में जितनी वस्तुऐं पैदा होती हैं उनका जागीरदार हासिल ( हिस्सा ) लेता है । इसी प्रकार जैनियों के घरों में जितनी नई वस्तुऐं ( खाद्य पदार्थ ) आती है वे सबसे प्रथम मन्दिरजी में चढाने की एक प्रथासी पड़ गई है भले ही वह वस्तु योग्य है या अयोग्य, कल्पनिक है या अकल्पनिक उसका विचार कोई भी नही करता है । यहांतक कि भींडी, तोरु, काकडी, सीताफळ, मतीरा, जामफल, अनार, खरबुजा, तरबुज, बोर आदि बहु बीजा फल जोकि श्रावक (गृहस्थ ) कों भी खानेयोग्य नही है याने अभक्ष है तो देव के आगे तो चढाना महा मूर्खता है इसी प्रकार रोटी, शाग, आदि भी खाने पूर्व मन्दिर में चढाए जाते है । यहां कई प्रान्तों मे दिपावली ( दिवाली ) के रोज खाजा, साकलीए, गुलगुला, शकरपारा आदि भी मन्दिर में चढाये जाते हैं । यह प्रथा जैनशास्त्रों से प्रतिकुल है । मन्दिरों मे विधर्मी पूजारियोंने विष्णु मन्दिरों के देखादेखी जैनों के मन्दिरों में भी प्रथा जारी कर एक प्रकार से जागीरदार बन गये हैं । जैनों के देव वीतराग है उनके आगे पुर्वोक्त तुच्छ पदार्थ चढाना सर्वथा अनुचित ही नही वरन मिथ्यात्वका कारण है एवं अधर्मीयो का पोषक है । इस अनुचित प्रवृति से कर्म की निर्जरा और पुन्यबन्धन होने कि बजाय कर्मों का बन्धन और पापबन्ध का कारण होता है ।
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( १९ ) वैष्णवलोग उनके देव को जो पदार्थ चढाते है वह पुनः इस भव और भवान्तर में मिलने की नियत से चढ़ाते हैं। जब कि जैन अच्छे से अच्छा पदार्थ देव को अर्पण करते है वह अनाहारी पद प्राप्त करने की इच्छा से अतएव वर्तमान में जो उपरोक्त तुच्छ पदार्थ चढाने की प्रथा जैन मन्दिर में है वह एकदम उठादेनी चाहिये । क्यों कि जैनमन्दिरों का निर्माण केवल आत्मकल्याण निमित होता है। मन्दिर बनवानेवालों का अभिप्राय यह नहीं है कि मन्दिर की प्रतिष्ठा कराके भाडूती मिथ्यात्वी नोकरों के भरोसे पर छोड दे और वह अपनी विषय वासना को पोषण करने को जैन मन्दिरों को अपनी जागीरी बनालें।
जैनो ! जरा आंख उठाके देखो तुम्हारे मोक्षदाता मन्दिर और वीतरागदेवों की भाडूती और मिथ्यात्वी पूजारी कितनी अनहद आशातना करते हैं उस आशातना का फल आपको भी भूगतना अवश्य पडेगा । उनकी सब प्रकार की सेवा, भक्तिपूर्वक नही है परवे भाडूती है। देवकी आंगी रचना करते वक्त जो विदेशी चरवीयुक्त केसर और चामड़ामें कुटे हुए सोने चांदी के वर्क मूर्तिके अंग परचिपकाते है उनको पक्षाल करते समय उतारने के लिये वालाकूची एक शस्त्रका काम करती है वह आप देखते ही हैं। अंगलुना फिर किस यत्नासे करते है वहतो आप जानते ही है। अंगलूणों की हालत देखे तो मेले कुचेले रखते है जिसको देवके स्पर्श करने से कितनी आशातना होती है। मन्दिरों में देवके बिलकुल निकट दिपक रखते है उसका ताप और धूआमूर्ति को लगता
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( २० ) है जिससे गम्भारा और बिंब काला हो जाता है। श्रावकों को तो बिना स्नान किये मूल गम्भारे में जाने की आज्ञा नही पर सायंकाल में पूजारी आरती करता है उस समय वह नतो स्नान करता है न दिनभर के अशुद्ध वस्त्रों को बदलता हैं फिर तमाकू गांजा पीकर एकदम देवकी पूजा पक्षाल करते है कितनी घोर आशातना करते हैं। प्रायः इनकी शराकत से मन्दिरों में चोरिए होती हैं । बहुतसे मन्दिर में ही खानापिना करते है अनाचार भी करते है । इतनी आशातना करने पर भी कई भाई उन अधर्मी पूजारियों का पक्ष कर न्याति में तड़धड़ा डालते हैं। परन्तु ऐसे पक्षपातीयों का संसारीक जीवन कितना खराब होता है ? और परभव भी बिगडता है। अतएव जैनों ! जरा अपने हृदय पर हाथ रखकर बिचारों कि आप की क्यां दशा हो गई हैं। कहां तो आपके पूर्वजों का तपतेज, मान-मर्यादा, इज्जत-आबरू,धन-सम्पति और कुटुम्बपरीवार ? कहां आपकी आज तुटी फुटी साहेबी और क्लेशमय जीवन ? याद रखिये यह सब मन्दिर मूर्तियों की आशातना का ही कारण है ! आशातना का प्रत्यक्ष फल आप भुगतते है फिर भी नही चेतते । आपकी कितनी घटती होती जा रही है । अंग्रेजों के आनेके समय अठाराह क्रोड भारतीय जनता थी । उस समय जैनों की संख्या एक क्रोड थी जब आज भारतीय जनता बढ कर ३५ क्रोड हो गई तब जैन घटकर १३ लाख ही रह गये हैं अतएव शीघ्र ही चेतो और अपने पतन के कारणो को हटाकर अपनी अभिवृद्धी के कारण को ग्रहण करो।
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( २१ )
४०,००० जैन श्वेताम्बर जैनमन्दिरोंसें १०००००
विधर्मी पूजारियों का पोषण ।
वर्तमान समय भारत की पवित्र भूमिपर जैन श्वेताम्बर आम्नायके करीबन् ४०००० मन्दिर हैं । इन मन्दिरों की सेवा-पूजा के लिये करीबन् १००००० नोकर चाकर और पूजारी रक्खे जाते हैं और उन पूजारियों कों मन्दिरों की सेवापूजा के बदलामें वेतन मन्दिरोंका चढ़ावा पूजा पढ़ानेका सामान - जैनोंके घरोंमें विवाहकी सिख विदा -त्याग के रुपये, ओसर मोसर में, प्रतिष्टा, उपधान, उज्जमना आदिमें फी आदमी एक वर्ष के रू. २५०) दिये जाते है इस हिसाब से एक लाख आदमियों कों एक वर्ष में अढ़ाई किरोड़ रूपये केवल मन्दिरों की पूजाई के ही दिये जाते हैं पर यह पूजारी सबके सब प्रायः विधर्मी हैं इनके संस्कार जन्म से ही विधर्मियों के होने से जैन धर्म के मन्दिरों की भक्तिका लाभ और आशातना के पाप से अनविज्ञ है ऐसे अज्ञ लोगों से जैनमन्दिर पूजाना मानो जान बूजके मन्दिरों की आशातना करवानी है और यह ही पुकार आज चारों ओर से हरसमय आया करती हैं परन्तु बिचारी जैन कोम पराधिन है इसका उपाय भी तो वे क्या कर सके ? नतों स्वयं मन्दिरपूज सकते है और न उन विधर्मी पूजारियों को निकालने की उनमें ताक्त है । पूजारीयों का होसला यहाँ तक बढ़ गया हैं कि
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( २२ ) वें जैनमन्दिरों को अपनी जागीरी बना चुके हैं कई मन्दिर
और मन्दिरों की स्थावर मिलकत पर पूजारियों ने अपना कब्जा भी कर लिया हैं इन पूजारियों की काली करतूतें से ही तो कई जैनमन्दिरों में चौरीयों होती हैं जिसके समाचार प्रति सप्ताह में वर्तमान पत्रों द्वारा आप पढ़ ही रहे हैं। कई मन्दिरों में इन पूजारियों ने अन्य देवी देवताओं कों घुसेड दिये है कि जिन को उठाने में जैनों को लाखों रूपये खर्च करने पड़ते है । इतना ही नहीं बल्कि कई जैनमन्दिरों को अन्य धर्म के मन्दिर तक बना लिये है । जीवती जागती जैन कोम पर पूजारियोंका यह जुलम एक दयाधर्म पालनेवाली जैन कोम ही सहन कर सकती है यदि आर्यसमाजी-मुसलमान और क्रीश्चियन होतें तो कदापि सहन न करते, वे कान पकड़ कर उसी वख्त निकाल देंते । जैनियों तुमारे अन्दर कुच्छ जीवन रहा हैं तुम्हारे धर्मका कुछ गोरव हैं ? यदि है तो कुंभकरणि निंद्रा को दूर कर देखो कि इस समय आर्थिक संकट में प्रतिवर्ष ढाई किरोड़ रूपये जिसमें १६००००००) तो जैन गृहस्थों के घरोंसे और ९००००००) रूपये जैनमन्दिरों की आमदानी से अर्थात् देवद्रव्य से विधर्मीयों को दिये जाते हैं यह एक मिथ्यात का तो पोषण है ही पर साथ में मन्दिरोंकी आशातना और धर्म की निंदा करानेका भी कारण है।
एक तरफ केवल मन्दिरों की पूजाई के लिये भाडूती पूजारियों को इतनी बड़ी रकम दी जाती हैं तब दूसरी और आपके स्वाधर्मि भाई आर्थिक संकट से दुःखी जीवन गुज़ा
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( २३ ) रते है इतना ही नहीं पर धर्म से पतित हो अन्य धर्म में जा रहे है । यदि उन वैकार भाईयों को मन्दिरों की पूजा करने में लगा दिया जाय तो क्या हरजा हैं क्यों कि मन्दिरों की पूजा करना खास श्रावकों का ही कर्त्तव्य हैं यदि सबसे यह न बन सके तो वे द्रव्य की सहायता दे अपने भाईयों से ही मन्दिर पूजावें । आपके भाई अगर मन्दिर पूजेंगे तो निम्नलिखत फायदे होंगे। (१) जैन भाई पूजा करेंगा तो आज जो मन्दिरों की आशातना
होती है वह न होगी आशातना न होने से आपका पतन
होता रूक जावेंगा । और उन्नति होगा। (२) जैन पूजारी होगा तो वह आत्मसमर्पण करने तक मन्दि
रकी रक्षा करेंगा। (३) जैन पूजारी होगा तो जो ९००००००) रूपये देवद्रव्य
के विधर्मी पूजारियो को दिये जाते है वह बच जायगा । यदि उस द्रव्य से आप मन्दिरोंका जीर्णोद्धार करावेंगे तो आपका एक भी मन्दिर ऐसा न रेहगा कि जिसके लिये शालोशाल टीपणिए और चन्दा कर कर साधारण जैनों को
तकलीफ देनी पडे । (४) जैन पूजारी होगा तो जो आज प्रतिदिन मन्दिरों में चौरियों
होती है वह भी रूक जायगी। (५) जैन पूजारी होगा तो जो आप लग्नसादी ओसर मोसरा
दिपर १६००००००) जितनी रकम विधर्मी पूजारियों को
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( २४ ) देते है वह बच जायगी। और इनसे आधी रकम आप अपने स्वाधर्मी भाइयों को सहायता दोगें तो उन १००००० भाईयों का अच्छी तरहसे निर्वाह हो सकेगा।
इनके अलावे और भी अनेक फायदा है वह आपको इस कार्य को प्रारंभ करते ही मालुम हो जायगा । ___ जैनों में यह एक प्रथा सजड़ घर कर लिया है कि धर्मादा खाता की नोकरी नहीं करनी यदि कोई करे तो उसकी इजत हलकी समजते है । पर यह बिलकुल भुल है नेकीसे काम करना और एक आदमी या साधारणसे तनखह लेना किसी प्रकार से अनुचित नहीं हैं जरा सोचिये जैनों कों हजारों मन्दिर और तीर्थोपर विधर्मी नोकर रखने से जैनों कितना नुकशान हुआ ओर होता जा रहा हैं । क्या जैनपूजारी या कारखाना में जैनमुनिम होता तो शत्रुजय के शालभर के ६००००) तथा श्री केसरियाजी तीर्थकी. यह हालत हो सक्ती? कदापि नहीं। अबी भी समय है जैनों कों सावधान होना चाहिये । जैनाचार्यो मुनिवरों को भी इस वातका जोरों से उपदेश देना चाहिये और गृहस्थों को भी अपने संबन्धियों को इस कामके लिये प्रेरणा करनी चाहिये। कारण जैनमन्दिरों की आशातना दूर करना तथा सेवा भक्ति ब सार संभाल करना और बेकार स्वाधर्मी भाइयों को सहायता देना तीर्थकर नाम बन्ध का मुख्य कारण है ।
____ अंतमें हम आशा रखते है कि इस मेरी योजना को हमारे स्वधर्मी भाई अवश्य पसंद कर के हमकों सहयोग देंगे
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( २५ ) यदि आप समाज के ढाई किरोड़ रूपये विधर्मीयों के हाथ जाता हुआ बचावेंगे। तो देवद्रव्यका रक्षण होंगा । स्वाधर्मि भाइयों का निर्वाह होगा। और मन्दिरों की उन्नति में अपनी उमति होगा। शुभम् ।
पत्रिका नम्बर ८
सेवगो को हित शिक्षासेवगों ! तुम्हारे अन्दर कुछ जीवन का अंश है ? यदि हे तो निम्न लिखित बातों पर ध्यान दो। इस वीसमी शताब्दी में पराधीन रहना कितना महा पाप है ? तुमको जैनियों के घरों में ढोली, सरगडा और नाईयोंकी पंक्ति में रह कर हलके से हलका काम भी करना पडता है । यहां तक कि पत्रिका नम्बर ३ में दर्ज है। तुम्हारा कुत्ते से भी जियादा तिरस्कार होता है । एक ओरतके एक ही मालिक होता है परन्तु तुम्हारे तो जो आता है वही मालिक बन जाता है और तुम्हारा तिरस्कार भी करता हैं । रात दिन गधे की तरह काम करने पर भी इच्छित लाभ नहीं मिलता है जो कुछ मिलता है वह भी तिरस्कार फटकार और अपमान पूर्वक मिलता है। जिस देवद्रव्य को खाना जैनी महान् पाप वो नाशकारी समझते है वही निर्माल्य द्रव्य तुम खाते हो जिस से तो तुम्हारी बुद्धि मारी जाती है, एवं वंस विध्वंस होता है। यही कारण है कि तुम्हारी जातिकी संख्या दिन २ घटती जा रही है । जब तक तुम लोग देवद्रव्य का भक्षण करोंगे तब तक तुम्हारी जातिका हास
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( २६ ) होता ही जायगा।और अन्तमे तुम्हारी जातिका अन्त हो जायगा। अतएव अपना भला चाहो तो पराधीनता की बेडीयें को शीघ्र ही तोडदो, तुम्हारे अन्दरसे जिन्होने उपरोक्त कारण समझा है वे तो स्वतंत्र व्यापार उद्योग में जीवन गुजारते है। तुम भी अपने उन भाइओंका अनुकरण करके सुखी बनो। यदि तुमको जैन मन्दिर ही पूजना है तो वेतन से काम करो किन्तु देवद्रव्य कदापि भी मत लो। यदि लो गें तो डूब जाओगे, नाश हो जाओगे, इस भवमें और परभव में तुम्हारी दुर्दशा होगी । हम तुम्हारे हितके लिये कहते है सो मान लो वरना " चिडिया चुगगई खेत" वाळी कहावत चरितार्थ होगी।
पत्रिका नम्बर ९ जैनो आपके मन्दिर कौन पूजेगा? जब अधर्मी नोकर पूजारियों को मन्दिरोंसे हटाकर आप अपने मन्दिरोंकी आशातना से बचना चाहते हो तब प्रश्न यह पैदा होता है कि "जैनों आपके मन्दिर कौन पूजेगा?
जैन मन्दिर निर्माण करने वालॊका इरादा यह होता है कि प्रत्येक प्राणि आत्मकल्याण के अर्थ ही भगवान की सेवा पूजाभक्ति करे पर कालान्तर से वे आत्मकल्याणको भूलकर मोक्षदाता वीतराग देवकी सेवा पूजा स्वयं छोड विधर्मी भाडूती नोकरों के सुप्रद कर दिया है जिसको न तो भक्तिका प्रेम है और न आशातना काही भय है । जब आशातना अपनी चर्म सिमा तक पहुंच गई तब जैनों को
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(२७) बिचार हुआ कि अब क्या करना । इसका निर्णय करने के लिये किसी एकग्राम में वहाँ के सब जैनी एकत्र हुए और उपरोक्त प्रश्न उनकों सामने रखा गया। इस पर सब विचार करते है। एकने-सेवगोंको निकालने में तो मेरी सम्मति है पर
मन्दिर पूजे कौन ? दूसरेने--मन्दिर साध या रावल से पूजाया जाय। तीसरेने-फिरतो वही हालत होगी जो सेवगों से हो रही है। चोथेने-जिस प्रकार दिगम्बर जैन (श्रावक) अपने हाथ से
पूजा करते है। नोकर चाकरों के भरोसे मन्दिर नही रखते है वल्कि अजैन पूजारियों को अन्दर मूळ गम्भारामें नहीं जाने देते है। छोटे से छोटे ग्राम में भी श्रावक हाथ से पूजा करते है वैसे ही बडे नगरों में
प्रथा है फिर अपने भी हाथों से पूजा क्यों न करें ? पांचवेने-पूजन पक्षालन तो अपने भी हाथों से कर सकते हैं
पर दिगम्बर मन्दिरों में सोने रुपे के कोई पदार्थ नही होने से उनको सुविधा रहता है । पर हमारे मन्दिरों में तो अनेक जोखमी चीजे रहती है उसकी
जिम्मे वारी कोन लेता है ? छठेने-वीतराग देव के यह जोखम क्यों रखनी चहिये
क्योंकि अपुन जो सेवा पूजा भक्ति करते है वह
वीतराग अवस्था की करते है न कि सीने चांदी की। सातवेने--सोने चांदी के मुकुट कुंडल आदि आभूषण आज
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(२८) कोई नयेसर धारण नहीं करवाते है यह तो पूराणे समयसे रिवाज चला आता हैं । इस रीति को बंद
करने से अपने संघकी वो गाम की हलकी लगेगी। आठवाने--हलकी तो एक ग्राम में हो दूसरा में न हो तब
लगती हैं पर सर्वत्र यह प्रवृति हो तो कौन किस
कों कह सक्ता है। नौवाने--ऐसा तो अपने अन्दर संगठुन कहां हैं एक साधु
कहता है कि ऐसा होना चाहिये तब दूसरा कहता
है कि नहीं होना । अब किसपर विश्वास रखे । दशवा-सब मुलक की वात क्यों करते हैं अपने तो अपने
ग्राम की वात करना है । लो शालभर में एक मास
के लीये तो हमारा नाम लिखो। बस । उपरा उपरी नाम लिखना शरू हुआ कि एक मनुष्य को तीन वर्षों में एक मास आया अर्थात् ३६ मनुष्यों ने एकेक मासका नाम लिखा दिया यदि इस प्रकार ग्रामोग्राम और नगरोनगर श्रावक लोग अपना कल्याण समज कर स्वयं पूजा किया करे तो एक वर्ष के ढाई किरोड रूपये का वचाव और मन्दिरों की आशातना दूर हो भक्ति पूर्वक सेवा पूजा होती रहै । नव युवकों में जीवन है उत्साह है पुरुषार्थ है भक्ति है धर्म पर श्रद्धा है और कार्य करने में वीर है । इन सब बातों को प्रत्यक्ष में कर बतलानेवालो को कोटीशः धन्यवाद हैं । शम् ॥
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( २९ )
पत्रिका नम्बर १० जैन श्री संघकी सेवा में एक जरूरी
-: निवेदन. :(१) ग्रामों के कई अज्ञान जैनी हाल थोडे समय से सेवों
कों पगे लागण करने लग गये हैं । यह सर्वथा अनुचित है क्यों कि सेवग आपके याचक (मांगनेवाळे) है। अनार्य देश से आये हुए अनार्य है। अतएव कोई भी जैन सेवगोंको पगेलागना न करें। यदि सेवग आपके पास आ कर, कहें कि श्री पार्श्वनाथ उदय करे तो आप
कहो ' आओ सेवग' यह प्राचीन समय की प्रथा है। (२) सेवगोंसे राक्खी मत बंधाओ। विष्णु लोगोंके ब्राह्मण
राक्खी बांधते है वह तो उनके गुरु यजमानका व्यवहार है । पर जैनियों में न तो राक्खी का त्योवहार है
और न गुरु यजमानका सम्बन्ध है । सेवगोने करीब २०४३० वर्षों से जैनों की पोल देख राक्खी बांधना सरु की हैं । अतएव कोई भी जैनी सेवगोंसे राक्खी नही बन्धावे । जो कोइ इस आज्ञाका उल्लघंन करेगा
वह जाति द्रोही धर्म विराधक समझा जावेगा। . (३) सेवग लोग कभी २ कच्ची रसोई पानेसे इनकार करे
तो उनको रास्ता बतलादो। उनको कांसी की थाली हरगिज मत दो । उनकी एंठी थाली वेही मांझे एसा कई ग्रामों में बन्दो वस्त भी हो चुका है आपभी यह
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(३०) शर्त करके पीतलकी थाली देवे । यदि अधिक करे तो
पुलिसका थांणा वतला दो। (४) लग्न-ब्याह, प्रतिष्टा, उपधान, उत्सव आदि प्रसंग पर
सेकडों सेवग एकत्र हो जाते हैं फिर फैल फितूर कर घर धणिको बहुत कष्ट देते है। अतएव सेवगों से सम्बन्ध बिलकुल तोड़ दिया गया है। उनको एक पाइ भी देने की जरूरत नही है। इन निन्दकों को देने के बजाय गायों को घास और कुतोंको रोटी देना अच्छा है कि
वे बिचारे सेवगों के भांति निन्दा तो नही करतें हैं। (५) जब सेवग निकम्मे रहते हैं तब गामड़ों मे या दिशा
वरों में मांगने को निकल पडते हैं और जैनों को बहुत तंग करते हैं, मुंडे बोलते है, अश्लील कवित बनाते है। परन्तु अब उनसे डरने की जरूरत नहीं है। साफ कहदो कि अब तुम्हारे साथ हमारा कोई सम्बन्ध नही
है । ज्यादा करे तो उनपर रीतसर कार्यवाही करो। (६) सेवगों ने जैन मन्दिरों में कई अन्य देवी देवताओं
को बैठा दिये हैं जिनको पृथक करने में जैनों कों लाखों रुपयों का व्यय करना पड़ा है। अतएव भारत के सर्व जैन मन्दिरों में जैन के सिवाय किसी अन्य धर्मीकों जैन मन्दिरों की पूजाका काम नहीं देना चाहिये। इस समय जितने विधर्मी पूजारी हैं उन सबको शीघ्र ही निकाल देना चाहिये ताकि भविष्य मे अन्य देवी देवता जिन मन्दिरों में न बैठा सके । और दूसरी अनेक जातकी आशातना से भी बच सकेगें।
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(३१) (७) विवाह जैसे मांगलिक प्रसंगपर 'डफोलशंक ' नही
बजवाना कारण ये चीज अमंगलिक है । इसी कारण से किसी जैनाचार्यने डफोलशंखों को मन्दिर के मूल गंभारे के बाहर गढ़वा दियाथा इसी कारण हरेक मन्दिर के मूल गम्भारे के दाजे के बाहर इसकी ( शंख ) की शकल खुदी दुई रेहती है कि जिसको देखकर इसका उपयोग न करावे । मात्र दक्षिण मूर्ती
शंख ही मंगलिक माना गया है। (८) इसी प्रकार विवाह के प्रसंग पर एक छप्पैया कहते
है वह कतैई बंद कराना चाहिये। इस छप्पैया मे क्या है । *सताइसै सात आठ अठारातीसा, छे छे छतीसा
___“ तीन तेरह तेतीसा" बयालीस बावन चार बारह बहुत्तर अउर चौसठ पांच पन्द्रह इकवीसा नव नव चहदह रयण दिन, चाहडजांपे अभयभुव । गुरु मुख प्रमाण हि त्याणसु, ऐते इच्छ करंत तुव ॥
जैनियों को “ तीन तेराह तैतीसा" करनेवाला यह छप्पैया ही है अतएव विवाह जैसे मंगलिक प्रसंग पर हरगीज न बोलने दें उनका सर्वथा बहिष्कार करना ही उचित है अतएव सब जैनी इनका बहिष्कार कर दे तब ही आप सुखी हो सकोगे॥
* इस छप्पैया का भावार्थ रिषवदासजी के लेखसे समझो।
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देवद्रव्य विषय-प्रवचन.
१४४४ ग्रन्थों के कर्ता भगवान् हरिभद्रसूरि अपने संबोध प्रकरणमें फरमाते है कि देवकों अर्पण किया हुआ द्रव्य, देवद्रव्य होता हैं वह देव के निमित ही काममें लिया जा सकता हैं। __आचार्य रत्नशेक्खरसूरि अपने श्राद्धविधि में आज्ञा करते है कि देवको अर्पण किया हुआ द्रव्य, देवद्रव्य होता है जिसका दुरुपयोग करना दुर्लभ बोधीपना उपार्जन करना हैं । फिर वढेतो जिणदत्वं, तित्थयर तं लहइ जीवो। भक्खंतो जिणदवं, अणंत संसारिओ भणिओ ॥१॥ भक्खणे देवदव्वस्स, परत्थी गमणेण य । सत्तमं नरयं जंति, सतवारउ गोयमा
॥२॥
उपदेश तरंगिणी पृष्ट १४४ देवद्रव्य भक्षण के लिये शास्त्रकार स्पष्ट और सख्त आज्ञा करते हैं कि वे अनंत संसारी होते हैं इतना ही नहीं पर शास्त्रकारोंने तो यहाँ तक फरमाया है कि ।
दीपं विधाय देवानामग्रतः पुनरेव न । गृहकार्य च कर्तव्यं, तिर्यग्रूपी भवेन्नरः
उ० त. पृ. १५० यदि मन्दिरजी के दीपक से अपना कागद वाचलेन पर भी वह तीर्यच होता है तो खास देवद्रव्य पूजारियों वगैरह को दे देना तो जानबूज के संसार परि भ्रमन को अपनाते हैं जैनों और सेवगों इस वज्र पाप से बचों कि भविष्य में आपका कल्याण हो ।
___ " मिश्रिमल जैन"
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