________________
देवद्रव्य विषय-प्रवचन.
१४४४ ग्रन्थों के कर्ता भगवान् हरिभद्रसूरि अपने संबोध प्रकरणमें फरमाते है कि देवकों अर्पण किया हुआ द्रव्य, देवद्रव्य होता हैं वह देव के निमित ही काममें लिया जा सकता हैं। __आचार्य रत्नशेक्खरसूरि अपने श्राद्धविधि में आज्ञा करते है कि देवको अर्पण किया हुआ द्रव्य, देवद्रव्य होता है जिसका दुरुपयोग करना दुर्लभ बोधीपना उपार्जन करना हैं । फिर वढेतो जिणदत्वं, तित्थयर तं लहइ जीवो। भक्खंतो जिणदवं, अणंत संसारिओ भणिओ ॥१॥ भक्खणे देवदव्वस्स, परत्थी गमणेण य । सत्तमं नरयं जंति, सतवारउ गोयमा
॥२॥
उपदेश तरंगिणी पृष्ट १४४ देवद्रव्य भक्षण के लिये शास्त्रकार स्पष्ट और सख्त आज्ञा करते हैं कि वे अनंत संसारी होते हैं इतना ही नहीं पर शास्त्रकारोंने तो यहाँ तक फरमाया है कि ।
दीपं विधाय देवानामग्रतः पुनरेव न । गृहकार्य च कर्तव्यं, तिर्यग्रूपी भवेन्नरः
उ० त. पृ. १५० यदि मन्दिरजी के दीपक से अपना कागद वाचलेन पर भी वह तीर्यच होता है तो खास देवद्रव्य पूजारियों वगैरह को दे देना तो जानबूज के संसार परि भ्रमन को अपनाते हैं जैनों और सेवगों इस वज्र पाप से बचों कि भविष्य में आपका कल्याण हो ।
___ " मिश्रिमल जैन"