Book Title: kavidarpan
Author(s): H D Velankar
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishtan
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सवृत्तिकः कविदर्पणः
[चतुर्थीद्देशे पचिययमिह नजुम्माउ याईहिं सब्वेहिं निव्वत्तियं सत्तखुत्तो करहिं ॥ १०७ ॥ [प्रचितकमिह नयुग्मात् यादिभिः सर्वैः निर्वर्तितं सप्तकृत्वः कृतैः ।।]
इहानुक्रमेण] नयुग्मानगणवर्ज यगणादिसर्ववर्णगणैः सप्तकृत्वः कृतैः निर्वर्तितं प्रचितकं नाम दण्डकः। अत्रापि सप्तानां यगणादीनामुपर्येकैकयगणादिवृद्धया अर्णाद्याः स्युः पूर्ववत् ॥ १०७ ॥
जहिच्छिया लहूगुरू निरंतरा हवंति जत्थ दंडओ इमो अणंगसेहरो ॥ १०८ ॥ यत्र यथेष्टा निरन्तरा लघुगुरवः स्युरयमनङ्गशेस(ख)रो दण्डकः ॥ १०८॥ वच्चयम्मि एयमेव छेयलोयकन्नदिन्नसुक्खया असोयपुप्फमंजरित्ति ॥ १०९ ॥ [व्यत्यये एतदेव छेकलोककर्णदत्तसौख्या अशोकपुष्पमञ्जरीति । ]
एतदेव अनङ्गशेष(ख)ररूपकं व्यत्यये निरन्तरगुरुलघुत्वे छेकलोककर्णदत्तसौख्या अशोकपुष्पमञ्जरीति दण्डकजातिः ॥ १०९ ॥ समवृत्तप्रकरणम् ॥ अथार्धसमवृत्तान्याह
सतिगं लगुरू विसमे समे।
__ भत्तिग दो गुरुगा उवचित्तं ॥ ११० ॥ , विषमे प्रथमे तृतीयेह्रौ सत्रिकं लगुरू समे द्वितीये तुर्ये भात्रिकं गुरुद्विकमुपचित्रम् ॥११०॥
विसमंमि उवंतलमुक्कं ।
तं चिय वेगवई मुण छंदं ॥ १११॥ तदेवोपचित्रं विषमेंह्रौ निधनगुरुपश्चाल्लघुत्यक्तं वेगवतीच्छन्दो जानीहि ॥आपातलिकेयम् ॥ १११॥
विसमे सजा सगणगंता।
केउमती(ई) समे भरनगा गो॥११२॥ विषमे सजौ सगणगन्तौ समे भरनगा गः केतुमती ॥ ११२ ॥
रो जरा य जो य ओयपाययंमि ।
समे जरा जरा गुरू मई जवाई ॥ ११३ ॥ विषमे रो जरौ च जश्च समे जरौ जरौ गुरुर्मतिर्यवादिः । यवमतीत्यर्थः ॥ ११३ ॥
सतिगं विसमे लहुओ गुरू।
नभभरा य समे हरिणुद्धया ॥ ११४ ॥ विषमे सत्रिकं लघुको गुरुः समे नभभराश्च हरिणोद्धता ॥ ११४॥
ओयसमेसु कमा दुयमज्झा।
तिभदुगुरू अह नो जदुगं यो॥११५॥

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