Book Title: kavidarpan
Author(s): H D Velankar
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishtan
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App. II-छन्दकोशः
१०७
सट्ठि थ मत्तह होइ निरुत्त
चउपय पंचकल थ संजुत्त । पनरह मत्तह पयह पमाणि
लहुचउपइया छंदु वियाणि ॥ ४०॥ चउपइ इक्कु जमक्कु वि दीसह
भडिल छंद तं बुह थ सलीसइ । जमकु होइ जहिं बिहुपयजुत्तर
मडिल छंदु तं अज्जुणि वुत्तउ ॥ ४१ ॥ पइ पइ अन्नु जमक्कु रइज्जइ
सोलस मत्त पमाणु वि किज्जइ। सव्वमत्त जगणु वि चिंतिज्जइ
मिन्नमडिल्ल नाम तसु दिज्जइ ॥ ४२ ॥ पय पढमसमाणउ तीयउ जाणउ
मत्त अढारह उद्धरहु । बिय चउथ निरुत्तर तेरह मत्तउ
घत्त मत्त बासठि करहु ॥ ४३ ।। सव्वाणं दीहा सोहाणी
बासट्ठी मत्ता मेहाणी। आणीया छंदा रेहणी
सा पत्तामेहा मेहणी ॥४४॥
ससिमत्तपरि?उ अंसगरिट्ठउ मुत्तिउ अग्गलि जासु
जणबंधहं सारी सव्वपियारी निम्मल लक्खण तासु । जणु पंडिउ बुज्झइ तासु न सुज्झइ हक्क वियाणउ भेओ
सुवि जंपिवि नत्तहं चिंतवयंतहं भासइ पिंगलु एओ ॥४५॥
तथा चतुर्पु पादेषु प्रान्ते पञ्चकलं भवति ॥ ४० ॥ सर्वत्र जगणश्चिन्त्यते प्राकृतत्वात् त्यज्यते पादान्ते इति शेषः ॥ ४२ ॥ यत्र सर्वेपि दीर्घा भवन्ति नवरं तृतीयचतुर्थयोः पादयोः सप्तमो लघुर्भवति सा मेहाणीति भवति कीदृशी प्राप्तमेधा मेधया बुद्धया प्राप्ता या सा तया ॥ ४४ ।। यत्र प्रथम ससित्ति षोडश मात्राः ततोपि अंस इति गुरुः तेन गरिष्ठं सहितं तदने च मौक्तिकं द्वादशमात्रकं कथ्यते । एवं पादे पादे त्रिंशन्मात्राः । कीदृशी सा जने बन्धेन रचनीया सारा सर्वेषां प्रिया । तस्येति सामान्यपण्डितस्य न शुध्यति ॥ ४५ ॥
४०.३ पणरह D; पमाणु D. ४१.१ एक्कु for इक्कु D; s for वि D; २ बुड्य सरीसइ D, ३ पइ for पय BD; ४ मडिल्ल BD; बुहण for अज्जुणि D. ४२.२ सोलह D; ३ सव्वत्थ य for सव्वमत्त D. ४३.१ तीन for तीयउ B. ४४.३-४ रेहाणी-मेहाणी ABCD; ४५.१ परिदिउ for परिदृउ D; ३ पंडिय for पंडिउ D; ठियाणउ for वियाण3 D; तेओ for भेओ ABC, भेउ D; ४ एहु for एओ D.

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