Book Title: Yadusundara Mahakavya
Author(s): Padmasundar, D P Raval
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text
________________
पद्मसुन्दरसरिविरचित सद्यः प्रसद्य निजगाद यदुं नृधर्मा
दूरीकुरु प्रतिकृतिप्रवणां स्वहस्तात् । तामूर्मिकां सवति मे महती हृणीया
दीनं विलोक्य किल वीरयते न वीरः ।।४९॥
तस्याज्ञयाऽथ यदुसूनुरनूनसम्प
न्मुद्रां करात्समुदतारयदाशुहृष्टः । नैसर्गिकी तनुरुचं विदधत्स भूमे
रुत्सर्जनान्नट इव स्फुटमुद्दीदीपे ॥५०॥
तद्रूपसम्पदमकृत्रिमशोभनीयां
नेत्राञ्जलीभिरभितः परिपीय बाला । क्षेत्रे सुधोक्षणवशात्पुलकाङ्कुराणि
सा बिभ्रतीव सुदती सुतरां ललास ॥५१।।
उत्कण्ठयत्यविरतं यदुकण्ठपीठे
कामः स्म सद्वरणदाम निधातुमेनाम् । व्रीडा पुनः शयकुशेशययुग्ममस्याः
संस्तंभवत्यहह ! दोलितमानसायाः ॥५२॥
दोलायिते मृदुतनोर्हदि हीम्मराभ्या
मुत्तम्भितप्रवरवृष्णिकुलातपत्रे । अध्यासितः स्फुटमिवान्यरसातिशायी
शृङ्गार आभ्युदयिकीमधिराजलक्ष्मीम् ॥५३॥
दुद्राव हृद्रुतमहो दयितं नु तस्या
श्चक्षुर्गतागतमपत्रपया चकार । तदूपदीप्तिझरसङ्करपक्कदुर्ग
खजीभवत्किमिव सामिपथ प्रयाति ॥५४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206