Book Title: Yadusundara Mahakavya
Author(s): Padmasundar, D P Raval
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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१२२
पन्नसुन्दरसूरि विरचित
व्रीडाभरोपनतधर्मजवारि जाया
पत्योः करे वितरणाम्बुभिराप लोपम् । आनन्दजाश्रुभरनिर्झरवारिधाराs
पालोपि धूमशितिवल्लिजवेल्लितेन ॥२५।।
सदक्षिणां वितरति स्म स दक्षिणीयान्
भूपो वनीपकमनीषितकल्पशाखी । भूकश्यपः कृतसमग्रविधिस्तदानी
मागास कौतुकगृहं सुपुरोहितेन ॥२६॥
..
तत्सम पद्ममिव जालदलं पुरन्ध्रि
लोलेक्षणभ्रमरराजिविराजिशोभम् । सवालवायजनिबद्धतलाम्बुभूषा
हेमस्फुरत्करपरागमराजत स्म ॥२७॥
वन्द्वेन तेन निरशेषि हिया नतेन
नो बन्धुता समुदयस्य पुरोऽशनाया । नादशि दीर्घमथ तत्र मिथो यथाव
निकामकेलिशयने अहमप्यशायि ॥२८॥
सोत्प्रासमस्य समिती यदुनन्दनस्य
श्यालः सुकेलिवचनैर्हसति स्म जन्यान् । सग्धिं विदग्धपुरुषायितवारमुख्या
वृन्दैरकारयदमीषु च सापलापम् ॥२९॥
रुच्यं हि वाच्यमिह वः खलु दास्यति स्व-~--
रागादियं बहुकरी मदनालयादि । एषा वरामचिरा कनका सगभीन्
संश्लिष्य काममिति वाचमुवाच जन्यान् ॥३०॥
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