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श्री वैराग्य शतक थई चालवा लाग्या थोडे दूर गया बाद राणीए कह्यु के :'मने खूब तरस लागी छे' राजा पाणी लेवा गयो, पाणी मळ्यु नहिं, पण राणीना उपर अनहद प्रेमने लीधे पांदडानो दडीयो बनावी - पोतानी नस चीरीने लोहीथी भरी, राणी पासे आवीने कडं के :- 'ल्यो आ गंदा खाबोचीयामांथी आवं पाणी मल्युं छे, ते पीवो' राणी ते गटगटावी गई. थोडे दूर गया पछी वळी राणीए कह्यु - मने भूख खुब लागी छे राजा आहारनी शोधमां थोडे दूर जई, पोताना साथळमाथी मास कापीने लाग्यो ते पक्षीनुं मांस छे एम कही खवराव्यु. ए प्रमाणे रस्तो कापतां कापतां जंगल वटावी एक नगरमां आव्या, घरेणा आदि जे कांई हतुं ते वेचीने तेथी आवेल धनथी वेपार करी राजा निर्वाह करवा लाग्यो. राजा वेपार करवा जाय, त्यारे राणी तेने कहे के:- मने एकहुँ घरमां गमतुं नथी-बीक लागे छे. राजाए एक पांगळा माणसने चेकीदार राख्यो, तेनो कंठ घणो कोमळ हतो. तेनी साथे लपटाई ने तेने घणी तरीके मान्यो. पछी तो रोज राजाने मारवाना प्रसंगो विचारवा लागी. एक वखत वसंतऋतुमां राजा राणीने लई गंगा नदीने कांठे क्रीडा करवा गयो, त्यां खूब मदिरा पीवरावीने, राणीए राजाने नदीना प्रवाहमां वहेतो मुकी दीधो, ने पेला पांगळाने खभे बेसारी गायन गवरावतीभिख मांगती भटकवा लागी, लोको पूछे के : 'आ कोण छे !' त्यारे कहेती के : मारा मा-बापे, आवो स्वामी शोध्यो छे.'