Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 159
________________ श्री वैराग्य शतक एकान्तमां बेसी करीने ध्यान मुद्राने धरी. मुज सर्व कर्म विनाशकारण चिन्तवू जे जे समे, ते ते समे तुज मूर्ति मनहर, माहरे चित्ते रमे, (३१) उत्कृष्टभक्तिथी प्रभो ! में अन्यदेवोने स्तव्यां. पण कोईरीते मुक्तिसुखने आपनारा नव थयां, अमृत भरेला कुम्भथी छोने सदाए सींचीए, आंबातणां मीठा फलो पण लींबडा कयांथी दीये ? (३२) भवजलधिमांथी हे प्रभो ! करू णा करीने तारजो, ने निर्गुणीने शिवनगरनां शुभसदनमां धारजो, आ गुणीने आ निर्गुणी एम भेद मोटा नव करे, शशी सूर्य मेघपरे दयालु सर्वनां दुःखो हरे. (३३) (शार्दूल विक्रीडितम्) पाम्यो छु बहुपुण्यथी प्रभु ! तने. त्रैलोक्यना नाथने, हेमाचार्य समान साक्षी शिवना, नेता मल्या छे मने एथी उत्तम वस्तु कोई न गणुं, ज्हेनी करूं मांगणी मांगुं आदर वृद्धि तोय तुजमां, ए हार्दनी लागणी, (३४) जाणी आहत गूर्जरेश्वरतणी, वाणी मनोहारिणी,

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