Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 165
________________ १४२ श्री वैराग्य शतक पगले पगले पामीर, पापी धरमी कोक, घर घर काग निहाळीए, कोकिल पक्षी स्तोक. ४९ दुर्जन वचनो अवसरे, सज्जन हितकर थाय, प्रयाण समये वाम खर, भूकयो भलो मनाय. लघु पण जेह कलानिधि, तेह लहे बहुमान, बीज तणां शशीने नमे, जनता ए एंधाण. ५१ स्थानभ्रष्ट पण शिष्टनर, पामे अधिकुं मान, राजाने माथे चडे, मणि मूकीने खाण. पंडितनी साथे रह्या, मूर्खो पण पूजाय, कोयल टोळे कागडां, कोयल एम मनाय. ५३ प्राये पापी पापमां, होय प्रेम करनार, लींबडे वायसनी रति, छंडिने सहकार ५४ स्वार्थ साधवा लोकमां नीच जनोय मनाय, रक्षण करवा धान्यनुं, भस्म यथा जळवाय. सज्जनसंकटमां पड्ये, दुर्जन बहु हरखाय, मींचाये नरनेत्र जब, तब घुवड विकसाय. ५६ सन्त स्वभाव तजे नहीं छोने दईए छेह, फरी फरी जल उकाळीएं, तोपण शीतल देह. ५७ निर्धन नरने नव भजे, स्वार्थी नर जे होय, पुष्प पूर्ण पलासने, भ्रमर न सेवे कोय. ५८ संत संगथी कठिण पण, हैयुं कोमळ थाय, शशी संगे जो जळथकी चन्द्रकान्त भींजाय. ५९ , ५० ५२ ५५

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