Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir
View full book text
________________
श्री वैराग्य शतक
१४५ रही जशे. मनोरथो माटीमां मळी जशे. आशा निराशामां फेरवाई जशे. ते वखते पस्तावानो पार नहि रहे माटे सारी अवस्थामां मळेली शक्तिओनो सदुपयोग करी लेवा माटे दृढ विचार कर.
सर्व अवस्थामां काम आवे अने सर्व स्थळे निश्चित बनावे एवं भातु भरी ले.
प्रमाद निद्रामांथी धर्म जागरणमां आवी जा. पछी कोईपण अवस्था तने सतावशे नहिं, सदा सुख अने शांति तने छोडशे नहिं, पूरेपूरा आनंदने अनुभवनारो बनी जईश माटे आजने आज तुं विचार कर.
तुं कोण छु, कयांथी आव्यो छु, अहिं आवता पहेलां तुं क्या हतो. अनंत काल कई स्थितिमां केवी केवी रीते भटकयो. चारे गतिमां पैराधीनपणे केटला केटला दुःखो तें सहन कर्यां, जन्म पहेलां गर्भकालमां नव नव मास केवा दुःखो भोगव्यां. तेटलो काल बीभत्स स्थानमां ऊंघे मस्तके रहेला एवा तारी कई कई दशाओ थई. केवा मलीन आहारो तें कर्यां, कर्माधीन तें केटलुं सहन कर्यु, जन्म वखते तारी केवी तुच्छ दशा थई. भवो भवमां अनेक दुःखो सहन करी पापमां मस्त बनी जे मेळवेली सामग्रीमांथी तुं साथे | लई आव्यो, शुं करवा आव्यो छु. शुं करी रह्यो छु. विषयोनी वासनामां भान भूलेल आत्मा कर्म भोगवती वखते तारी शुं दशा थशे,

Page Navigation
1 ... 166 167 168 169 170 171 172