Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 161
________________ १३८ श्री वैराग्य शतक मोटा हित माटे बने, थोडो पण गुणीसंग, अल्प लवणथी अन्न ज्युं, स्वादु बने छे चंग.. ५ पर संपत्ति देखीने, पवित्र जन हरखाय, नभ निर्मळता निरखतां, स्वच्छ शरदजल थाय. ६ दुर्भाग्ये दुःखकर बने, सज्जन संग सुजात, पेखो कपूर संगथी, श्रीफळ जळ विष थात. ७ पापी पाप तजे नहीं, ककडा करीए तोय शिरहीन राहु पण ग्रहे, पूर्ण चन्द्रने जोय.. ८ सज्जन छंडी मूर्खनर, दुर्जन पासे जाय, . मूकी मधुर द्राखने, काग निंबोळी खाय. ९ अति परिचय जे करे, मान रहित ते थाय, देखो मलये बावना-चन्दन इन्धण थाय. १० उत्तमने उत्तम मळे, त्यां धर्मोन्नति थाय, गंगा यमुना संगथी, तीर्थ प्रयाग मनाय. ११ लघु पण पीडे पुष्टने, पामी स्थान विशेष, मच्छर हाथी कानमां, पेसी पडावे चीस. १२ सारगये जन श्रेष्ठने, बोले बुरा बोल, तेल गये तल देखीये, लोक कहे छे खोळ. १३ प्राणान्ते पण नव तजे, पोताना जे होय, शुष्कसरे सूकाय छे, पंकज पंक्ति जोय. १४ दुर्मुख क्षणमां क्षीण करे, जन्मतणो पण प्रेम, तन्दुल तुषनी मित्रता. मूशळ विनाशे जेम. १५

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