Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir
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श्री वैराग्य शतक कान एक एवी इन्द्रिय छे. के जे बंध करी शकाती नथी. शब्दने आधीन आखं जगत छे. मोहक शब्दो सांभळी प्राणी रागमां फसाय छे. ते अप्रिय सांभळी द्वेष करे छे. माटे हे चेतन ! आ बन्ने प्रकारना शब्दो न सांभळवा पडे एवी स्थितिमां रहे. धर्मश्रवणमां श्रवणेन्द्रियने रोकी राख, जो शब्दने वश थयो तो हरण अने सर्प जेवी तारी दशा थशे. वनखंडमां विचरतो कोईथी भय न पामतो कोईना प्रहार के कठोर शब्दने नहिं सहेतो दुष्टने जोवानो पण प्रसंग न पामतो-मृग मोरलीने-मधुर गायनने वश थई पोताना शत्रु पासे दोडी जाय छे. बंधनमां पडे छे. प्राणने खोवे छे. दरमां रहेवा, निरांते सुवा- कोईनी पण परवा नहिं करवानी एवा सर्पो -जेना फुफाडाथी पण माणस धूजी जाय एवा मणिधर नागो पण - बंसीना स्वरने वश बनी भान भूले छे. मदारीने आधीन थाय छे. तेना नचाव्या नाचे छे. निर्विष बनी लोही लुहाण थाय छे. अधूरा आयुष्ये मरे छे माटे आत्मन् ! तुं पण जो श्रोत्रेन्द्रिय - कानने परवश पड्यो तो तारी पण एज दशा छे माटे कान पर काबू राखी-सुखी थजे. हे जीव ! आ पांचे तो एक एक इन्द्रियने परवश पडी प्राण खोवे छे तो तने पांचे इन्द्रियोना तेवीस विषयोमां गाढ आसक्ति छे तेथी तारी केटली दुर्दशा थशे तेनो विचार कर, विचार करी आसक्ति ओछी कर-आसक्तिने सर्वथा छोडी दे. जो संसारथी डरतो हो ! ने मोक्ष मेळववाने इच्छतो हो ! तो इन्द्रियोनो विजय

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