Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir
View full book text
________________
श्री वैराग्य शतक
१२५
साचा मोतीना नवलखा हारमां कुसुमनी शय्यामां - फुलनी पथारीमां अने धूळमां, माटीमां, कचरामां स्नेह के अप्रेम नहिं थाय. शत्रु अने मित्रमां, प्रशंसक अने निंदकमां, अमने कोई वखाणे के कोई गाळ दे, ते बंनेमां अमे एक सरखा रहीशुं, बधा पर एक सरखी प्रसन्नता धारण करीशुं, रागद्वेषने वश नहि बनीए. ने समभावमां लीन रही आत्माने अपूर्व गुणोथी समृद्ध बनावीशुं.
पांचमां श्लोकमां मन, वचन अने कायाना योगोनी स्थिरता केळववानी भावना छे.
समभाव केळवाया बाद कायानी प्रवृत्तिओ छोडतां शिखीशुं, कायाने असत् प्रवृत्तिओथी सदन्तर दूर राखीशुं., कायानी स्थिरता केळवी, वाणी उपर काबू मेळवीशुं. मिष्ट अने हितकारी, ने ते पण प्रयोजन होय तो ज बोलीशुं. मिथ्या वचन तो प्राणान्ते पण नहिं बोलीए पछी अतिशय चंचळ चित्तने वश करीशुं. ध्याननी धारामां मनने जोडी दइशुं, योगाभ्यास रूपी रसायणथी हृदयने रंगी दईशुं, लोकोनो संग त्यजी- एकांतमां जईने रहीशुं त्यां चित्तने स्थिर करवा प्रयत्न करीशुं, आत्मामां अपूर्व आनंद प्रगट थशे ते अमृत रसना निर्मळ निर्झरमां- स्वच्छ झरामां स्नान करीशुं, हृदयना बधा मेल धोई नाखीशुं. स्फटिक जेवा

Page Navigation
1 ... 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172