Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir
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श्री वैराग्य शतक छो बुद्ध ने आ विश्वत्रयना छो तमे नायकपणे ए कारणे आन्तर रिपु समुदायथी पीडेल हुँ, हे नाथ ! तुम पासे रडीने हार्दनां दुःखो कहुं.
(१८) अधर्मना कार्यो बधां दूरे करीने चित्तने, जोडुं समाधिमां जिनेश्वर ! शान्त थै हुँ जे समे,
त्यां तो बधाये वैरीओ जाणे बळेला क्रोधथी, · महामोहनां साम्राज्यमां लई जाय छे बहुजोरथी.
. . (१९) - छे मोह आदिक शत्रुओ म्हारां अनादि काळना,
एम जाणुं छु जिनदेव ! प्रवचनपानथी हुं आपना तो ये करी विश्वास एनो मूढ में ढो हुँ बर्नु. ए मोहबाजीगरकने कपिरीतने हुं आचरूं
(२०) ए राक्षसोनां राक्षसो छे क्रूर म्लेच्छो एज छे, एणे मने निष्ठुरपणे बहुवार बहु प्रीडेल छ, भयभीत थई एथी प्रभु ! तुम चरण शरणुं में ग्रह्यु जगवीर ! देव ! बचावजो में ध्यान तुम चित्ते धर्यु.
(२१) कयारे प्रभो ! निज देहमां पण आत्मबुद्धिने तजी, • श्रद्धाजळे शुद्धि करेल विवेकने चित्ते सजी,
सम शत्रु मित्र विषे बनी न्यारो थई परभावथी,

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