Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 153
________________ १३० श्री वैराग्य शतक क्षीण थाय छे क्षणमां बधां ते आपने सारे स्तवे, अति गाढ अंधारा तणुं पण सूर्य पासे शुं गजें, एम जाणीने आनंदथी हुँ आपने नित्ये भजु. शरण्य ! करुणा सिंधु ! जिनजी ! आप बीजा भक्तना महामोह व्याधिने हणो छो शुद्ध सेवासक्तनां, आनंदथी हुं आप आणा मस्तके नित्ये वहुं, तोये कहो कोण कारणे ए व्याधिना दुःखो सहुं. संसार रू प महाटवीना सार्थवाह प्रभु ! तमे, मुक्तिपुरी जावा तणी इच्छा अतिशय छे मने, आश्रय कर्यो तेथी प्रभो ! तुज तोय आन्तर तस्करो. मुज रत्नत्रय लुटे विभो ! रक्षा करो रक्षा करो. बहु काळ आ संसार सागरमां प्रभु ! हुं संचर्यो, थई पुण्य राशि एकठी त्यारे जिनेश्वर ! तुं मळ्यो, पण पाप कर्म भरेल में सेवा सरस नव आदरी, शुभ योगने पाम्या छतां में मूर्खता बहुए करी. आ कर्मरूप कुलाल मिथ्याज्ञान रूपी दंडथी, भव चक्र नित्य भमावतो दिलमां दया धरतो नथी, करी पात्र मुजने पुंज दुःखनो दाबी दाबीने भरे

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