Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 144
________________ श्री वैराग्य शतक १२१ सर्प के मणिमाळमां कुसुमनी, शय्या तथा धूळमां, क्यारे तुल्य थशुं प्रफुल्लित मने शत्रु अने मित्रमां. ४ योगाभ्यास रसायणे हृदयने, रंगी असंगी बनी, क्यारे अस्थिरता त्यजी शरीरने, वाणी तथा चित्तनी आत्मानंद अपूर्व अमृतरसे, न्हाई थशुं निर्मळां. ने संसार समुद्रना वमळथी, क्यारे थशुं वेगळां. ५ क्यारे सिद्धगिरि पवित्रशिखरे, जइ शांतवृत्ति सजी. सिद्धोनां गुणनो विचार करशुं. मिथ्याविकल्पो त्यजी. वासीचंदनकल्प थई परिसहो, सर्वे सहीशं मुदा, आवी शांत थशे अहो अमकने, शत्रुसमूहो कदा ६ श्रेणी क्षीणकषायनी ग्रही अने, घाती हणीशुं कदा, पामी केवलज्ञान सर्वजनने, देशुं कदा देशना. धारी योगनिरोध कोण समये, जाशुं अहो मोक्षमां, एवी निर्मळ भावना प्रणयथी, भावो सदा चित्तमां. ७ विवेचन-आ साते श्लोकोनो अर्थ स्पष्ट छे. पहेलां बे. श्लोकमां विशुद्ध गृहस्थ धर्मनी भावना छे. एवो अपूर्व अवसर कयारे आवशे, के श्री जिनेश्वर प्रभुने समवसरणमां देशना देता साक्षात् देखीशं. ए त्रिलोकनाथना दर्शन करी नेत्रने निर्मळ बनावीशुं, बंने आंखोने पवित्र करीशं. एमनी जगदुद्धारिणीकल्याणकारिणी-मनोहारिणी वाणी सांभली श्रोत्र-कान पावन करीशुं. ए हितकर उपदेश मनमा ठसावी मनने विशुद्ध बनावीशुं,

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