Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 145
________________ १२२ - श्री वैराग्य शतक एमना त्रिकाला-बाधित वचनपर अविचल श्रद्धा धरशुं, श्रेणिक महाराजानी माफक ए श्रद्धाथी कदी पण चलायमान नहि थईए. ए प्रभुनी तन-मन-धनथी सेवा बजावीशुं, देवो ने देवेन्द्रो पण अमारा ए पुण्योदयनी-ए भक्तिनी-ए श्रद्धानी प्रशंसा करशे, मिथ्यात्विदेवो इंद्र-महाराजाना वखाणथी अमारी इर्ष्या करशे, अमने डगाववा घणा प्रयत्नो करशे, पण अमे नहिं डगीए, अमारूं सम्यक्त्व रत्न साचवी राखीशं. अमारी दृढता निहाळीने देव पण पाछो पडशे. छेवट खुशी थई मिथ्यात्वनो त्याग करी अमारा वखाण करशे, अमे प्रभुने हाथे देशविरति-बारव्रत लईशं. अखंडपणे ए व्रतोतुं पालन करीशं पर्वतिथिए बनशे तो हमेश पौषधमां रहीशं. पारणे विधिपूर्वक मुनिने वहोरावीने-तपस्वी श्रमणने पडिलाभीने पछी पारj करीशं. वहोरावतां अमे अमारा आत्माने धन्य भाग्य गणीशं. अमारा रोमराय विकसित थशे, अमारो जन्म सफळ लेखाशे, . अमाएं जीवन सार्थक समजाशे, अमारे आंगणे पांच दिव्य । प्रगटशे. अमारो आनंद समाशे नहिं. अगीयार प्रतिमा वहन करीशं. साधु धर्मनी तुलना करीशं. संसार अमने खारो लगाशे, एमांथी क्यारे छुटाय एमज विचारीशुं, संसारना कार्य तो न छुटके करीशुं, ए पण डरतां डरतां करीशं. एमां अमारां मनने लेपवा नहिं दइए. अने अवसर मळे संसारने सर्वथा छोडी देवा तैयार रहीशुं ने ए रीते आदर्श गृहस्थ जीवन जीवीशं.

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