Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir
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श्री वैराग्य शतक जईस पण एटलामां तो वनगज आवीने भमरा सहित कमळने पेटमां पधरावी दे छे जो ए गंधमां लुब्ध बनी त्यां बेसी रह्यो न होत तो तेने आम झुरीझुरीने मरवानो वखत न आवत, माटे हे चेतन ! तुं पण गन्धमां लोलुप न बनतो (८६) (८७) चक्षुरिन्द्रियमां आसक्त-मरण पामतुं
पतंगीयुं पतंग पचरंगी रूपाळ गगनपथमां गाजतुं, आघातथी के स्पर्शथी क्षणवारमा ऊडी जतुं. थई नयनने वश ते बिचारूं ज्योतमां झंपलाय छे, एम जाणीने पण शीद चेतन ? नयनने वश थाय छे.
विवेचन-हे चेतन ! रू पनी पाछळ गांडा बनी तें तारूं केटलुं गुमाव्युं छे, तेनो विचार कर, पारकी स्त्रीना रूप जोवामां तें केटलीय वखत जान-माल खोया छे. तुं पायमाल थयो छे. ए अनर्थनी परम्पराथी बचवा माटे तो सुरदासे पोतानी आंखो फोडी नाखी हती. एमां ने एमां रूपसेन भवोभव दु:खी थयो हतो. हवे तो ए आंखने रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं,
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङकजश्री : । इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे,,
हा हन्त ? हन्त ? नलिनी गज उज्जहार ॥

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