Book Title: Vairagya Shatak
Author(s): Amrutsuri, Dhurandharvijay, Kundakundvijay Gani
Publisher: Dhurandharsuri Samadhi Mandir

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Page 122
________________ श्री वैराग्य शतक (७४) विश्वमां एवं कोई स्थळ नथी के ज्यां आ जीवे जन्म-मरण न कर्यां होय. चोराशी लख योनी विषे नथी कोई योनी विश्वमां नथी जाति के कोई कुळ एवं जीव न गयो जेहमां, वळी स्थान पण एवं नथी आकाश के पाताळमां ज्यां जन्ममरणो नव कर्यां बहुवार श्वासोश्वासमां. विवेचन-हे चेतन ! जन्म मरणना दुःख ए सर्व करतां भयंकर 'दुःख छे, एथी अधिक कोई दुःख नथी. तारो जन्म मरण करतां हजु पार न आव्यो. 'पुनरपि जननं-पुनरपि मरणमू' वळी जन्मवू ने वळी मरवू. एमने एम चाल्या ज करे छे. जन्मवाना स्थळ चोराशी लाख, ए बधे तें जन्म लीधां. बधी जातिमां, ऊँचा-नीचा कुळमां दरेक स्थानोमां तें अनुभव कर्यो, आकाश-पाताळ के पृथ्वीमां एवी कोई जग्या नथी के ज्यां ते जन्म मरण न कर्यां होय. एक वखत तारी ए दशा हती के : - तुं एक श्वासोच्छवासमां १७ा वखत जन्म मरण करतो. हजु तने ए जन्म मरणथी कंटाळो नथी आवतो ! आवे छे तो शा माटे जन्म मरण वधे. एवा आचरण करे छे. जन्म मरणथी छूटवा प्रयत्न कर. धर्म कर. संसारनी माया छोडी संयम लई परमपद मेळव के फरी तारे जन्मवानो के मरवानो वारो न आवे. (७४).

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