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श्री वैराग्य शतक क्षायिक समकिती बनो अने अक्षय सुखने मेळवो, आ भावनानी विचारणा छे-अहिं अनुप्रेक्षा-बार भावना पूरी थाय छे. आ बार भावनामां विश्वनी सर्व विचारणाओ समाई जाय छे. कोई एवं तत्त्वज्ञान नथी, कोई एवं पदार्थ ज्ञान नथी, कोई एवी वस्तु नथी के जे आ बार भावनामां न होय, आ भावनाओ भावी एणे सर्व भाव्यु. माटे ऊंडाणथी आ भावनाओने विचारो ने आत्महित साधो. (४८)
__(४९) हवे. चार परा भावनानुं स्वरूप दर्शावाय छे. शास्त्रमात्रनो सार कहो, सर्व ग्रंथोनुं रहस्य कहो, सर्व उपदेशोनुं फळ कहो. तो ते आ चार भावनाओ छे. आ भावनाओथी आत्माना असाध्य व्याधिओ नाश पामे छे. आ भावनाओथी प्राणीमात्र मुक्त बनी शके । आत्मशरीरने पुष्ट करवा माटे आ भावनाओ रसायण समान छे. भावनाओ आत्माने धर्म ध्यान साथे जोडी दे छे, तेमां.
प्रथम मैत्री भावना. हितचिंतनथी सर्वसत्त्वनी साथे चेतन मैत्री जोड, वैर विरोध खमावी दइने ईर्ष्या अन्धापाने छोड. मातपिताने बन्धु रूपे सर्व जीव संसारे होय, द्वेषभावना विण आ जगमां सबळोशत्र छे नहीं कोय.
विवेचन-हे चेतन ! तुं शा माटे बीजाने तारा शत्रु समजे छे ! ताये कोई शत्रु नथी, तारुं कोइए बगाडयुं नथी.