Book Title: Uttaradhyayani Part_2
Author(s): Bhadrabahuswami, Shantisuri,
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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Jain Education
| खेमेणं संपत्तो सो पालिअ सावगो घरं निययं । धाईदसद्धपरिवुडो अह वड्डइ सो उदहिनामो ॥ ४२९ ॥ | बावन्तरिं कलाओ अ सिक्खिओ नीइकोविओ जाहे। तो जुवणमप्फुन्नो जाओ पिअदंसणो अहि ॥ ४३०॥ अह तस्स पिआ पत्तिं आणेई रूविणित्ति नामेणं । चउसट्टिगुणोवेयं अमरवहूणं सरिसरूवं ॥ ४३१ ॥ अह रूविणीइ सहिओ कीलइ सो भवणपुंडरीअंमि । दोगुंद व देवो किंकरपरिवारिओ निच्चं ॥ ४३२ ॥ अह अन्नया कयाई ओलोअणसंठिओ सदेवीओ । वज्झं नीणिजंतं अन्निजंतं जणसएहिं ॥ ४३३ ॥ अह भणइ सन्निनाणी भीओ संसारिआण दुक्खाणं । नीआण पावकम्माण हा जहा पावगं इणमो ४३४ संबुद्धो सो भयवं संवेगमणुत्तरं च संपत्तो । आपुच्छिऊण जणए निक्खंतो खायजसकित्ती ॥ ४३५ ॥
व्याख्यातप्राया एव, नवरं 'वीरवरस्स' त्ति नामतोऽन्येऽपि वीराः संभवन्ति स तु भगवान् भावतोऽपि वीर इति प्राधान्यख्यापकं वरग्रहणम्, अनेन भगवत्समकालतामप्यस्य दर्शयति, 'गणिमधरिमभरिएणं'ति गणिमं- पूगफ लादि धरिमं - सुवर्णकादि । प्रियदर्शनानि - सकलजनाभिमंतावलोकनानि सर्वाण्यङ्गानि - शिरउरःप्रभृतीन्य| स्येति प्रियदर्शन सर्वाङ्गस्तम् । 'धाईदसद्धपरिबुडे' त्ति दशार्द्धधात्रीपरिवृतो, दशार्द्ध च पञ्च ताश्च क्षीरमज्जनमण्डन
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