Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 03
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust

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Page 386
________________ उत्तराध्ययन ॥३८४॥ षट्त्रिंशमध्ययनम्. (३६) गा८२-८६ मूलम्-अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नगं। विजढम्मि सए काए, पुढवीजीवाण अंतरं ॥८२॥ व्याख्या-अनन्तकालमसंख्येयपुद्गलपरावर्तरूपं उत्कृष्टं, अन्तर्मुहूर्त जघन्यकं विजमित्ति' त्यक्ते खके खकीय काये पृथिवीकाये जीवानां अन्तरं । कोऽर्थो जघन्यत उत्कर्षतश्च यथोक्तं कालं पृथीवीजीवोऽन्यकायेषु भ्रान्त्वा पुनः पृथ्विकाये उत्पद्यते इति ॥ ८२ ॥ एतानेव भावत आहमूलम्-एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाइं सहस्ससो ८३ ___ व्याख्या-स्पष्ट, नवरं-विधानानि भेदाः सहस्रश इति अतिबहुतरत्वख्यापनार्थमिति सूत्रसप्तकार्थः॥ ८३॥ अपूकायिकानाहमूलम-दुविहा आउजीवा उ, सुहुमा वायरा तहा । पजत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥ ८४ ॥ बायरा जे उ पजत्ता, पंचहा ते पकित्तिआ। सुद्धोदए अ उस्से, हरतणू महिआवि अ ८५ व्याख्या-शुद्धोदकं जलदजलं 'उस्सेत्ति' अवश्यायः शरदादिषु प्राभातिकः सूक्ष्मवर्षो हरतनुः प्रातः स्निग्धपृथ्वीभवस्तृणाग्रजलबिन्दुः, महिका गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षो 'धूमर' इति प्रतीता, हिमं प्रसिद्धम् ॥ ८४ ॥ ८५ ॥ मूलम्-एगविहमनाणत्ता,सुहमा तत्थ विआहिआ। सुहमा सबलोगम्मि,लोगदेसे अ बायरा ॥८६॥ UTR-3

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