Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 03
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust
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उत्तराध्ययन ॥३९३॥
षट्त्रिंशमध्ययनम्. गा१४११४८
एगणपण्णहोरत्ता, उक्कोसेण विआहिआ। तेइंदिअआउठिई, अंतोमुहुत्तं जहण्णिा ॥१४॥ संखेजकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निआ। तेइंदिअकायठिई, तं कायं तु अमुंचओ ॥१४२॥ अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । तेइंदिअजीवाणं, अंतरेअं विआहि ॥ १४३ ॥
'एएसिं' इत्यादिप्राग्वत्- ॥ १४४ ॥ चतुरिन्द्रियानाहमूलम्-चरिंदिआ उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिआ। पजत्तमपजत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१४५॥
अंधिआ पोत्तिआचेव,मच्छिआ मसगा तहा । भमरे कीडपयंगे अ,ढिंकुणे कुंकुणे तहा ॥१४६॥ कुक्कुडे सिंगिरीडीअ, नंदावत्ते अविच्छिए। डोले भिंगिरीडी अ, विरिलीअच्छिवेधए ॥१४७॥
अच्छिले माहए अच्छिरोडए विचित्ते चित्तपत्तए।ओहिंजलिआ जलकारि अनीआ तंबगावि ॥ व्याख्या-एतेष्वपि केपि प्रतीताः केचित्तु यथासम्प्रदायं तत्तद्देशप्रसिद्ध्या वावाच्याः॥१४५, १४६, १४७,१४८॥
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