Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya Publisher: Sardarmal Munot KuchamanPage 17
________________ 61 इस महान् धर्म के सिद्धान्त, इसकी संस्थानों के महान् विकास और उसके भाग्य का वर्णन करने या रूपरेखा देने का ही मेरा विचार नहीं है। यही क्यों, जैनधर्म का इतिहास, उसके विविध चित्र-विचित्र कथानक और पवित्र धार्मिक साहित्य के द्वैतरूप कि जो श्वेताम्बर या दिगम्बर मान्यता की मांग स्वरूप आज हमें प्राप्त है, प्रादि प्रश्नों की कदाचित् ही मैं चर्चा करूगा। मेरा प्रयत्न तो मात्र इतना ही होगा कि मैं उन साहसी और बलिष्ट, महान् और यशस्वी पूर्वजों के प्रयासों का जो उन्होंने अपने एवम् अपने धर्म के इतिहास निर्माण करने के किए थे, मैं अनुसरण करू' और चाहे वह प्रांशिक और परीक्षामूलक ही हो फिर भी उनके योगदान का और विशेषतया उत्तर भारत की प्रसन्न और फलप्रद सांस्कृतिक धारा में दिए योगदान का मूल्यांकन करू। इस प्रकार के ग्रन्थ निर्माण की तीव्र प्रावश्यकता के इसके सिवाय भी अनेक कारण हैं क्योंकि पिछले सवा सौ वर्षों में साहित्यिक कृतियों को देखते हए, विद्वानों ने पौर्वात्य अभ्यासों के विभिन्न विभागों की ओर अत्यन्त दुर्लक्ष किया है। पहला कारण यह है कि उत्तर-भारत का इतिहास तब तक सम्पूर्ण लिखा ही नहीं जा सकता है जब तक कि वह जैनधर्म के प्रकाश में नहीं लिखा जाए क्योंकि इस धर्म ने गृहस्थों और राजवंशों में अगणित परिवर्तन किए थे। दूसरा यह कि भारतीय तत्त्वज्ञान का अवलोकन भी जैनधर्म के तत्त्वज्ञानावलोकन के अभाव में अपूर्ण रह जाता है और यह विशेष रूप से विंध्यपर्वत के उत्तर प्रोर के क्षेत्र के लिए, जहां कि जैनधर्म का जन्म हुआ था, और भी अधिक लागू होता है। तीसरे यह कि यदि भारतीय क्रियाकाण्ड, रीतिरिवाज, दंतकथाएं, संस्थाएं, ललितकला और शिल्प आदि का सुसम्बन्धित और सूक्ष्म अवलोकन करना खोज का विषय हो तो उस उत्तर भारत में कि जहां बारंबार के विदेशी अभियानों के शिकार होने के कारण कोई भी संस्था या धर्भ सहीसलामत नहीं रहे, जैनधर्म के चित्रविचित्र इतिहास को स्वभावतः प्रमुख स्थान मिलना ही चाहिए। डॉ. हर्टल कहता है कि जनों की वर्णनात्मक कथाएं भारत की वर्णनात्मक कला की लाक्षणिक हैं । उनमें भारतीय प्रजा के जीवन और उसकी पृथक पृथक प्रकार की रीतभांति का वास्तविक और सुसंगठित रूप में वर्णन हमें मिलता है। इसलिए जैन कथा-साहित्य भारतीय साहित्य के विशाल क्षेत्र में लोकसाहित्य का (उसके विस्तृत अर्थ में लेते हुए) ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के इतिहास का भी सबसे अधिक मूल्यवान मौलिक साधन है। अन्त में, राष्ट्र के मानस तथा सभ्यता को जानने का भूतकाल का सूक्ष्म और सावधानी पूर्वक अभ्यास के सिवाय दूसरा रामबाण उपाय कोई भी नहीं है। ऐसे अध्ययन से ही भूतकाल की प्रज्ञानजन्य और अन्धपूजा के स्थान में र.त्य और पुरुषोचित अभ्यर्थना स्थापित की जा सकती है। भारतीय साहित्य की निधि में जैनों ने जो योगदान दिया है उस सब का इतिहास दिया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रन्थ को ही रचना हो जाए। जनों ने प्राचीन भारतीय साहित्य में धर्म, नीति, विज्ञान तत्त्वज्ञान आदि विषयों द्वारा अपना सम्पूर्ण योगदान दिया है। भारतीय संस्कृति में जैनों के दिए योगदान का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करते हुए श्री बार्थं लिखता है कि 'भारतवर्ष के साहित्यिक और वैज्ञानिक जीवन में उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण भाग लिया है। ज्योतिष शास्त्र, व्याकरण और रोमांचक साहित्य उनके प्रयत्नों का आभारी है। ललितकला के प्रदेश में उदयगिरी और खण्डगिरि के पर्वतों पर के निवासगृह और गुहा मंदिरो के कुशलतापूर्वक उत्कीरिणत वेष्टनियां (फ्रीजेज), मथुरा के सुशोभित पायागपट तथा तोरण, गिरनार और शत्रु जय की पर्वतमाला पर के स्वतत्र खड़े सुन्दर स्तम्भ और प्राबू एवं अन्य पर्वतों पर के जैन मंदिरों का अद्भुत शिल्पकाम आदि भारतीय इतिहास और संस्कृति के विद्यार्थी की रस प्रवृत्ति को जागृत करने के लिए पर्याप्त हैं। इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी महान् शंकराचार्य और ऋषि दयानन्द का पृष्ठबत जैन और बौद्ध प्रभाव के सदियों की प्रतिक्रिया के ज्ञान विना पूर्ण रूप से जाना ही नहीं जा सकता है। साहित्य, कला और धर्म की ये हलचलें महान् राज्यों को सुरक्षित छत्रछाया के बिना विजयी हो ही नहीं सकती थीं इसलिए हमास अभ्यास जैनधर्म की राजसत्ता की सुरक्षा में हुई प्रगति की खोज करने के काम से प्रारम्भ होना चाहिए क्योंकि अपनी क्रमोन्नति में वह कितने ही राज्यों का उस दृष्टि से राजधर्म बन जाता है कि कितने ही महान् राजा उसको स्वीकार क . 1. हटंल, प्रॉन दिलिटरेचर ग्रॉफ दिश्वेताम्बराज श्रॉफ गुजरात पृ. 81 - 2 बार्थ, दी रिलीजन्स प्रॉफ इण्डिया, प. 1441 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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