Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm
Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya
Publisher: Sardarmal Munot Kuchaman

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Page 16
________________ [ 5 उसके कथनानुसार जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है, वह जैनधर्म दो हजार से अधिक वर्षों से भी जीवित है इतना ही नहीं अपितु उसने साधुषों एवं गृहस्थों में अनेक उत्तम कोटी के पुरुष भी उत्पन्न किए हैं और अत्यन्त श्रद्धालु और सत्य मार्ग शोधक अनेक उपासकों मोर भक्तों को मार्ग दर्शन कराकर वास्तविक शांति भी प्रदान की है।" । । परन्तु ऐसे विचार के व्यक्ति डॉ हास ही अकेले नहीं हैं परन्तु ऐसे दूसरे विद्वानों से हमें उसको पृथक करना ही होगा क्योंकि वह ऐसे बेबुनियाद अपने निष्कर्षो को भ्रम निवारण किए जाने पर विरेचन नहीं करने जैसा दुराग्रही और सत्यविमुख नहीं था । श्री विजयेन्द्रसूरिजी को एक पत्र में उसने लिखा था कि 'मुझे अब एकदम पता लग गया है कि जैनों का व्यवहारी धर्म प्रत्येक रीति से प्रशंसापत्र है तब से मैं निश्चय ही दुखी हूं कि लोगों के चरित्र और नैतिकता पर इस धर्म ने जो प्राश्चर्यजनक प्रभाव डाला उसकी प्रोर ध्यान दिए बिना ही ईश्वर को नहीं मानते, केवल मनुष्य पूजा करने और कीड़ी-मकोड़ी की रक्षा पोषण करने वाले के रूप में जैनधर्म की मैंने निंदा की। परन्तु जैसा कि बारंबार बना करता है, धर्म के साथ गाढ़ सम्बन्ध ही, न कि पुस्तकों द्वारा प्राप्त किए बाहरी ज्ञान, उसकी विशिष्टताओं का दिग्दर्शन कराता है और समष्टि में प्रत्यन्त अनुकूल वातावरण वही उत्पन्न करता है 12 आश्चर्य की बात बस इतनी ही है कि ऐसे पूर्ण अभ्यास के प्रत्यक्ष परिणामों से ही लम्बे समय तक जनधर्म पाश्चात्य विद्वानों की दृष्टि में बौद्धधर्म की एक शाखा मात्र माना जाता रहा था। ऐसी खोटी धारणा से पुरातत्त्व की इस शाखा के अभ्यासी शोधकों का ध्यान जैनधर्म के सुन्दर तत्त्वों की ओर क्वचित् ही गया और ऐसे भ्रम कुछ काल तक अवश्य ही चलते रहे थे। परन्तु जैनधर्म एक स्वतंत्र धर्म रूप में सिद्ध हो चुका है इससे अब तो इन्कार किया ही नहीं जा सकता है । निवारण के लिए डॉ. याकोबी और डॉ. व्हूलर जैसे विद्वान धन्यवाद के योग्य हैं । इस भ्रम , इन दो सुप्रसिद्ध विद्वानों के अविरत प्रयास के फल स्वरूप जैनधर्म विषयक प्रज्ञान अब दिनोदिन दूर होता जा रहा है । डॉ. याकोबी के 'श्री भद्रबाहु के कल्पसूत्र की प्रस्तावना' और 'श्रीमहावीर और उनके पुरोगामी अनुक्रम से ई.सन् 1879 ग्रोर 1880 में प्रकाशित विद्वत्तापूर्ण दो लेख और सन् 1887 में पढ़ा गया डॉ. उहूलर का 'जैनों की भारतीय शाला' लेख ही जैनधर्म के शास्त्रीय या बुद्धिगम्य पर विस्तृत विवरण देनेवाले सर्व प्रथम लेख थे। इन प्रसिद्ध विद्वानों को कीर्ति महान बुद्धिमत्ता और तात्विक सूक्ष्म दृष्टि से इस विषय की विवेचना ने इस प्रभु धर्म के प्रति योरोपीय विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया और जो कार्य उन्होंने प्रारम्भ किया था वह न केवल आज दिवस तक चलता ही रहा है अपितु उसके अनेक सुंदर परिणाम भी आए हैं । सद्भाग्य से प्राज जैनधर्म के प्रति दृष्टि में दर्शनीय अन्तर पड़ गया है और भूतकाल में ज्वलंत भाग लेने वाले पौर जगत की प्रगति, संस्कृति और सभ्यता की वृद्धि में जगत के अन्य धर्मों जितना ही अद्वितीय योगदान देनेवाले इस धर्म को जगत के धर्मो में इसका उपयुक्त स्थान प्राप्त होने लगा है । इसी सम्बन्ध में श्री स्मिथ कहता है कि यह शंकास्पद सत्य है कि किसी भी काल में समग्र भारत का प्रचलित धर्म बौद्धधर्म ही था।' इसलिए अनेक लेखकों द्वारा प्रयुक्त 'बौद्धधमं युग' नाम को झूठा और भ्रमास्पद कहते वह इसकी निंदा करता है क्यों कि उसका यह कहना है कि 'ब्राह्मणयुग के स्थान में भारत में जैन या बौद्ध युग इस दृष्टि से कभी भी नहीं रहा कि उसने ब्राह्मणीय हिन्दूध का स्थान ही ले लिया हो ।" वस्तु स्थिति जो भी हो, फिर भी इन दोनों धर्मो ने भारत वर्ष के इतिहास के पृष्ठों में अमिट छाप छोड़ी है और भारतीय विचार, जीवन, संस्कृति आदि में इन्होंने धनुपम योगदान दिया है इसको स्वीकार किया ही नहीं जा सकता है। इस ग्रन्थ के निर्माण का मेरा उद्देश्य इसलिए सामान्य जैनधर्म, न कि उसके कोई सम्प्रदाय विशेष जैसे कि श्वेताम्बर, दिगम्बर प्रथवा स्थानकवासी, उत्तर भारत मे किस प्रमाण में फैला हुआ था, वह खोजने प्रौर उसकी हो वृद्धि एवम् विस्तार का इतिहास ही प्रालेखित करने का है। 1 बेलवलकर, ब्रह्मसूत्रज, पु. 120 121 1 देखो शाह, जैन जैन गजट, भाग 23, पृ. 105 1 इण्डि एण्टी, पुस्त, 9, पृ. 158 धादि स्मिथ ऑक्सफोर्ड हिस्टोग्रॉफ इण्डिया, प. 55 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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