Book Title: Uttar Bharat me Jain Dharm Author(s): Chimanlal J Shah, Kasturmal Banthiya Publisher: Sardarmal Munot KuchamanPage 15
________________ 4 ] विश्वस्त प्रमारणों से भी यह अनुमान दूर नहीं किया जा सकता है कि जनजाति एक नवीन संस्था है और ऐसा लगता है कि वह सर्व प्रथम पाठवीं और नवीं सदी ईसवी में वैभव और सत्ता में आई थी। इससे पूर्व बौद्धधर्म की शाखा रूप में वह कदाचित् अस्तित्व में रही हो, और इस जाति की उन्नति उस धर्म के दब जाने के बाद से ही होने लगी हो कि जिसको स्वरूप देने में इसका भी हाथ था। श्री कोलबुक जैसे लेखकों ने गौतम बुद्ध को महावीर का शिष्य मान लेने की भूल की थी क्योंकि महावीर का एक शिष्य इन्द्रभूति भी गौतमस्वामी या गौतम कहलाता था। एड्वर्ड टामस कहता है कि 'महावीर के पश्चात् इसके धर्म में दो दल हो गए थे। बुद्ध के समानार्थी नामवाले इन्द्रभूति को पूज्य पुरुष का स्थान दिया गया क्योंकि बौद्ध और जैनशास्रानुसार 'जिन' और 'बुद्ध' का अर्थ एक ही होता है। परन्तु यह सत्य नहीं है क्योंकि 'जिन' का अर्थ 'जेता' और 'बुद्ध' का अर्थ 'ज्ञाता' होता है। रायल एशियाटिक सोसाईटी की सार्वजनिक सभा में पढ़े गए निबन्ध में कोलक ने कहा था कि 'जैसे डॉ. एमिल्टन और मेजर डीलामेने कहते हैं, जैनों और बौद्धों का गौतम एक ही व्यक्ति है और इससे एक दूसरा विचार भी उद्भवित होता है और वह यह कि ये दोनों धर्म एक ही वृक्ष की शाखाएं हों। जैनों के कथनानुसार महावीर के ग्यारह शिष्यों में से एक ने ही अपने पीछे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी छोड़े थे; अर्थात् जैनाचार्यों का उत्तराधिकारी मात्र सुधर्मा स्वामी से ही चल रहा है। ग्यारह शिष्यों में से मात्र इन्द्रभूति और सुघर्मा दो ही महावीर के बाद विद्यमान रहे थे। पहला शिष्य गौतमस्वामी नाम से प्रसिद्ध था और उसका कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था। इससे यथार्थ निष्कर्ष यह मालूम होता है कि इस जीवित शिष्य के कोई भी अनुयायी नहीं था ऐसा नहीं अपितु यह कि वे जैनधर्मी नहीं थे। इस गौतम के अनुयायियों का ही बौद्ध धर्म बना जिसके कि सिद्धान्त बहुतांश में जैनधर्म के जैसे ही हैं। पक्षान्तर में सुधर्मास्वामी के अनुयायी जैन हैं। तीर्थकरों का इतिहास, कथानक और पुराण दोनों ही के एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं।'' कितने ही नामों और नियमों की ऐसी पाकस्मिक समानता पर से रचित दोनों प्रोर के इन शीघ्र अनुमानों और प्रमाणों को जैसे किसी भी प्रकार से ऐतिहासिक नहीं कहा जा सकता है, वैसे ही उन्हें न्यायसंगत भी नहीं कहा जा सकता है। डॉ. याकोबी के शब्दों में यदि कहें तो ऐसी साम्यता फल्यूलेन के ऐसे न्याय सिद्धांत पर ही टिकी रह सकती है कि मैसीडोन में एक नदी है और मान्मथ (Monmourh) में भी एक नदी है। मान्मथ की नदी को वाई कहते हैं। परन्तु दूसरी नदी का वास्तविक नाम अब क्या है यह मुझे स्मरण नहीं है। परन्तु वह सब एक ही हैं। जैसे मेरी अंगुलियाँ एक दूसरे से मिलती हैं वैसी ही वे भी हैं और दोनों में ही सालमन जाति की मछलियां हैं।' डॉ. हापकिस जैसे सुप्रसिद्ध विद्वान ने भी 'मूर्तिपूजा, देवपूजा और मनुष्यपूजा' को महावीर के साथ एकान्त रूप से जोड दिया है। वह जैनधर्म के संबंध में कहता है कि भारत के सब महान् धर्मों में से नातपुत्त का धर्म ही न्यूनतम रोचक है और प्रत्यक्षत: जीवित रहने का वह न्यूनतम अधिकारी है। उसका इस सम्बन्ध का एक पक्षीय विचार अथवा उसका अज्ञान इतना गहरा जान पड़ता है कि अपने अंतिम निवेदन में भी इसी प्रकार के विचार वह दोहराए बिना नहीं रह सका था क्योंकि वह अन्त में लिखता है कि 'जो धर्म मुख्य सिद्धांत रूप से ईश्वर को नहीं मानना, मनुष्य पूजा करना और कीड़ी-मकोड़ी की रक्षा-पोषण करना सिखाता है, उमको वस्तुत: जीवित रहने का ही न तो अधिकार है और न उसका विचार-तत्वज्ञान के इतिहास में ही एक दर्शनरूप से कोई अधिक प्रभाव ही कभी रहा है ।। डा. हापकिंस के ये अनुमान इतने बहिर्मार्गी हैं कि उन्हें कपोलकल्पित और अपक्वनिर्णयों के रूप में निषेध करके ही हम सत्य के अधिक समीप पहुँच सकते हैं। क्योंकि 'अनेक पदाथों की ही भांति जिसे 1 विल्सन, वही, पृ 334 । 2. याकोबी, कल्पसूत्र पृ ।। 3. टामस (एडवर्ड), जीज्म और दी अर्ली फेथ ग्रॉफ प्रशोक, पृ. 6। 4. कोलबुक, मिसलेनियस एसेज, भाग 2, पृ. 315,3161 5. याकोबी, इण्डि. एण्टी., पुस्त. 9, पृ. 162 । 6. हापकिस रिलीजन्स प्रॉफ इण्डिया, पृ. 296 । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 248