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गाथा-२६,२७
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी * वाला है। धर्म की साधना से आत्मा, परमात्मा होता है। तीन लोक के समस्त * जीव, समस्त द्रव्य अपने-अपने स्वभाव में धर्म से संयुक्त रहते हैं। धर्म से कोई * विलग है ही नहीं, हो ही नहीं सकता। शुद्ध धर्म के आधार पर ही लोकालोक टिका है। लोकालोक का प्रकाशक शुद्ध चैतन्य आत्मा ही है।
धर्म का उत्तम स्वभाव उत्तम क्षमादि दस धर्म स्वभावलप है, अपने चैतन्य स्व स्वरूप में लीन रहने पर सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। स्व स्वभाव रूप धर्म से आनंद सहजानंद में रहते हुए मुक्ति की प्राप्ति होती है।
शुद्धनय की अनुभूति अर्थात् शुद्धनय के विषय भूत अबद्ध स्पृष्टादि रूप शुद्ध आत्मा की अनुभूति सो संपूर्ण जिन शासन की अनुभूति शुद्ध धर्म की अनुभूति है। चौदह मार्गणा, लोकालोक के भाव उसमें आ गये । मोक्षमार्ग, केवलज्ञान, मोक्ष इत्यादि सब जान लिया, अनंत गुणों का अंश प्रगट हुआ,समस्त लोकालोक का स्वरूप ज्ञात हो गया। इसी शुद्ध धर्म की साधना से समस्त कर्म क्षय होते हैं तथा आत्मा परमात्मा होता है।
इस शुद्ध धर्म निज शुद्धात्म स्वभाव के आश्रय से उत्तम क्षमादि प्रगट होते हैं, इसी से देशव्रतीपना, मुनिपना, पूर्णचारित्र एवं केवलज्ञान प्रगट होता है। आत्मा तो अनंत शक्तियों का पिंड है। आत्मा में दृष्टि स्थापित करने पर अंतर से आनंद परमानंद सहजानंद रूप बहुत विभूति प्रगट होती है। अंतर में तो आनंद का सागर है, ज्ञान सागर, सुख सागर, अनंत चतुष्टयमय है। अपने चैतन्य स्वरूप शुद्ध धर्म की शरण में आने, साधना करने पर यह पंच परावर्तनरूपी जन्म-मरण का रोग शांत होता है। सारी आकुलता विषमता मिट जाती है, जीवन में आनंद सहजानंद आ जाता है।
जिसे धर्म की महिमा आती है, उसे संसार की महिमा छूट जाती है। जीव ने अनंतकाल में शुद्धोपयोग रूप धर्म का आश्रय नहीं किया इसलिये निरंतर कर्मों का आश्रव बंध हुआ। शुद्ध धर्म का आश्रय करने पर अनंतानंत कर्मों का क्षय हो जाता है। आत्मा एक है और कर्म अनंत हैं परंतु अनंत चतुष्टय धारी आत्मा के जागने पर अनंतानंत कर्म क्षय हो जाते हैं।
धर्म साधना में लोगों का भय त्यागकर,शिथिलता छोड़कर स्वयं दृढ पुरुषार्थ करना चाहिये । लोग क्या कहेंगे, ऐसा देखने से धर्म साधना नहीं होती, आत्म * साक्षात्कार ही अपूर्व दर्शन है। अनंतकाल में नहीं हुआ, ऐसा निज शुद्ध स्वभाव
का जो दिव्यदर्शन हुआ वही अलौकिक देवदर्शन है, जिसके होने पर सब कर्मों ******* ****
की निर्जरा क्षय होकर मुक्ति का मार्ग, सिद्ध पद की प्राप्ति होती है।
धर्म की महिमा अपूर्व है, इस अशरण संसार में जन्म के साथ मरण लगा हुआ है। धर्म का शरण, आत्मा की सिद्धि न सधे, तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता ही रहेगा। इस जन्म-मरण के चक्र से छुड़ाने वाला, मुक्ति देने वाला एक मात्र धर्म का ही शरण है। चैतन्य स्वरूप आत्मा में स्थिर होने पर परमात्म पद की प्राप्ति होती है।
शुद्धोपयोग आत्मा का परिणाम है वही धर्म है। इस धर्म में वीतरागता का प्रकाश है, यह वीतरागता ही कोंकी निर्जरा करती है। इसी शुद्धात्मानुभव धर्म के सेवन से केवलज्ञान स्वरूप परमात्म पद प्रगट होता है।
यह धर्म जब व्यवहार में प्रवर्तता है तब सर्व लौकिक प्राणियों के साथ मैत्री भाव रखता हुआ सर्व का हित चाहता है तथा इसी समभाव रूप धर्म से जगत के सब पदार्थों को मूल द्रव्य स्वभाव से देखता है। शुद्धोपयोग रूप धर्म ही परमानंद को देने वाला है। जब आत्मानंद की अनुभूति में डूबता है तब सभी कर्म बंधोदय क्षय हो जाते हैं। यही स्वानुभव रूप धर्म ध्यान तथा शुक्ल ध्यान सर्व कर्म मल काटकर आत्मा को शुद्ध, मुक्त स्वाधीन कर देता है।
वास्तव में धर्म में कभी कष्ट नहीं होता, न कोई शोक होता, न चिंता होती, न खेद होता, न आकुलता होती, धर्म साधना में तो आनंद सहजानंद होता है, मुक्ति होती है, यही सत्य धर्म की विशेषता है।
प्रश्न- इस शुखधर्म की साधना में व्यवहार धर्म (पुण्य) सहकारी । या नहीं?
समाधान-साधक जीव पर द्रव्य रूप द्रव्यकर्म, परद्रव्य रूप भाव कर्म दया दान आदि शुभ राग और शरीरादि के प्रति उदासीन है क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसे शुद्ध चैतन्य ही उपादेय है, जब से ध्रुव स्वभाव को ध्यान में लेकर आत्म अनुभव हुआ तब से वह जीव पूर्णानंद स्वरूप को उपादेय जानने से रागादि रूप उठने वाले विकल्पों के प्रति उदासीन है। भूमिकानुसार दया दान व्रत नियम संयम आदि होते हैं उनका ज्ञायक है। जब तक जीव के साथ शरीरादि कर्मोदय संयोग है तब तक तत् समय की योग्यता अर्थात् जीव की पात्रता और कर्मोदयानुसार सारा परिणमन अपने आप चलता है। शुद्ध धर्म की साधना में पर का सहकारपना नहीं चलता। वर्तमान भूमिकानुसार जो भी क्रिया और रागादि
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