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गाथा- १४६-१४८***
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* ******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी
फूला रहता है। शरीर में आपापने के मिथ्याज्ञान से यह प्राणी शरीर के और * परिवार के लिये अन्याय अनीति आदि पाप करता है, जिससे नरक के दुःखों * का कारण पाप कर्म बांध लेता है।
शरीर में आत्मा की मान्यता यह "शरीर ही मैं हूँ" इसे संकल्प कहते हैं जिससे भविष्य के इष्ट-अनिष्ट की कल्पनायें हुआ करती हैं, इसी मान्यता सहित पूर्व में जो हो गया है, इसके संबंध में नाना प्रकार के भय, चिंता होना विकल्प कहलाते हैं । शरीर बुद्धि वाला जीव इस तरह के नाना प्रकार के अशुद्ध विचारों में फंसा अपना अनिष्ट करता है, इनसे छूटने बचने के लिये कुदेव कुगुरु आदि के जाल में फंसकर नाना प्रकार खोटे कर्म करता है। उसको मैं ज्ञान स्वभावी आत्मा हूँ ऐसी श्रद्धा नहीं आती है। घोर अज्ञान से ऐसा तीव्र ज्ञानावरण का बंध करता है कि निगोद में चला जाता है और हमेशा दु:खों से संतप्त रहता है।
कलरंजन दोष में फंसे जीव को यह भ्रम रहता है कि ऐसी-ऐसी मनोनुकूल परिस्थिति बन जाये अर्थात् धन, मान, आदर, सत्कार, पद, योग्यता, स्वास्थ्य और परिवार आदि मन चाहे पदार्थ मिल जायें तो वह सुखी हो जायेगा, इसके लिये नाना प्रकार के करने न करने योग्य कार्य करता है। रात-दिन संकल्प-विकल्प करता है। भयभीत चिंतित रहता है और अशुभ कर्म का बंध करके नरकादि दुर्गतियों में चला जाता है।
जब तक जीव की दृष्टि शरीर की तरफ रहती है एवं शरीर के साथ उसकी मानी हुई एकता रहती है, तब तक वह परमात्म स्वरूप होते हुए भी अज्ञानी मिथ्यादृष्टि रहता है । भेदज्ञान पूर्वक भिन्न जान लेने पर एक सच्चिदानंद घन परमात्मा ही हूँ ऐसा अनुभव हो जाता है।
मनुष्य शरीर केवल परम पद मोक्ष प्राप्त करने के लिये मिला है, अपने आत्म स्वरूप का ज्ञान होने से यह जीव संसार के जन्म-मरण से मुक्त हो
सकता है। मनुष्य भव धनादि पदार्थों का अर्जन एवं संग्रह करने और उनसे * सुख भोगने के लिये नहीं है। इसलिये झूठ कपट पापादि का त्याग कर संयम
तप द्वारा अपने आत्म स्वरूप को जानने पहिचानने, उस मय रहने का पुरुषार्थ * करना चाहिये । यह तो प्राय: सभी मनुष्य मानते हैं कि धन परिवार शरीरादि * की प्राप्ति में पूर्व कर्म बंधोदय की प्रधानता है। जो वस्तु प्रारब्धानुसार मिलने * वाली है वह तो अवश्य मिलेगी ही, न मिलने वाली वस्तुएं नाना प्रकार के
उद्योग और झूठ कपटादि के व्यवहार से भी नहीं मिलती हैं और इस अज्ञान के परिणाम स्वरूप दुःख भोगना पड़ते हैं तथा दुर्गति में जाना पड़ता है।
अपने अज्ञान अर्थात् अपनी भूल के कारण शरीरादि के साथ एकता करके जीव दु:खों को भोग रहा है। अपने आत्म स्वरूप का ज्ञान हो जाने से अज्ञान के कार्य लप संपूर्ण दु:ख मिट जाते हैं।
शरीर में एकत्व और रागभाव के कारण कलरंजन दोष के क्या परिणाम होते हैं, यह आगे गाथा में कहते हैं -
कल परिनाम उवन्नं, लाज भय गारवेन दिहेई । ससंक न्यान सहकारं, कल संजोय दुष्य वीयम्मि ॥ १४६ ॥ कलंच उत्साह दिडं, अन्यानं सहाव अन्मोय संदिह। न्यानंकुरं न लहियं, न्यानं आवर्न नरय वीयम्मि ॥१४७ ॥ कलरंजन दोष उवन्नं, असुद्धं अन्यान अन्मोय सहकार। पर पुग्गलं सरूवं,कलरंजन दोष दुग्गए पत्तं ॥ १४८॥
अन्वयार्थ - (कल परिनाम उवन्नं) शरीर में एकत्व, रागभाव होने से नाना परिणाम पैदा होते हैं (लाज भय गारवेन दिढेई) कलरंजन से लाज भय गारव दिखाई देता है (ससंक न्यान सहकारं) शंका सहित ज्ञान का सहकार करता है अर्थात् ऊपर से धर्म-कर्म सिद्धान्त, ज्ञान की बातें करता है और अंतर में शंकित भयभीत रहता है (कल संजोय दुष्य वीयम्मि) शरीर के सजाने संवारने आदि संयोग से हमेशा दु:खी चिंतित रहता है।
(कलं च उत्साह दिट्ट) शरीर के प्रति बहुत उत्साही दिखाई देता है (अन्यानं सहाव अन्मोय संदिट्ठ) अज्ञान स्वभाव की अनुमोदना करता है और उसी को देखता है (न्यानंकुरं न लहियं) भेदज्ञान, आत्मज्ञान की बात नहीं सुहाती है, ज्ञान को ग्रहण नहीं करता है (न्यानं आवर्न नरय वीयम्मि) ज्ञान के ऊपर आवरण डालकर नरक का बीज बोता है।
(कलरंजन दोष उवन्नं) कलरंजन दोष पैदा होने से (असुद्धं अन्यान अन्मोय सहकारं)अशुद्ध शुभाशुभ कर्म, अज्ञान, संसारी व्यवहार की अनुमोदना और सहकार करता है (पर पुग्गलं सरूवं) परद्रव्य, परजीव, पुद्गलादि शरीर को अपना स्वरूप मानता है, अपने आत्म स्वरूप को देखता