Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 254
________________ गाथा-४५४-४५६-H-H-HARY - श्री उपदेश शुद्ध सार जी उन भावों का कर्ता नहीं होता है, जो उदय में आते हैं उनका ज्ञाता ही होता है, इससे सारे भाव कर्म विला जाते हैं। लोगों का भय त्यागकर, शिथिलता छोड़कर, स्वयं दृढ पुरुषार्थ करना चाहिये, लोग क्या कहेंगे? ऐसा देखने से कभी आत्म कल्याण नहीं कर सकता। साधक को एक शुद्ध आत्मा का ही लक्ष्य संबंध होता है। निर्भय रूप से उग्र पुरुषार्थ करना चाहिये। साधक को शुद्धात्मा ममल स्वभाव के चिन्तवन का अभ्यास करना चाहिये, जिसे शुद्धात्मा, ध्रुव तत्व, ममल स्वभाव का रस लग जाता है उसे संसार का रंग उतर जाता है। ५२. लोभ भाव,५३. भय भाव, ५४. गारव भावलोभं अत्रित भावं,लोभं परिनाम सयल गलियं च । आवरनं नहु जुत्तं, लोभ गलियं च न्यान सहकारं ॥ ४५४ ॥ भयं च अत्रित सहिय, भय परिनाम नंत गलियं च। आवरनं नहु जुत्तं, सुद्ध सहावेन कम्म गलियं च ।। ४५५ ॥ मनरंजन गारव उत्त, गारव परिनाम कलिस्ट गलियं च। आवरनं नहु दिलु, न्यान सहावेन कम्म संषिपनं ।। ४५६ ॥ अन्वयार्थ - (लोभं अनित भाव) लोभ के क्षणभंगुर भावों को मत देखो (लोभ परिनाम सयल गलियं च) लोभ के सारे परिणाम गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) इस आवरण में मत जुड़ो (लोभं गलियं च न्यान सहकारं) ज्ञान के सहकार से सब लोभ गल जाता है। (भयं च अनित सहियं) यह भय के भाव भी सब क्षणभंगुर हैं, इन सहित हो रहे हो (भय परिनाम नंत गलियं च) भय के अनंत परिणाम सब गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) आवरण में मत जुडो (सुद्ध सहावेन कम्म गलियं च) शुद्ध स्वभाव से सब कर्म क्षय हो जाते हैं। (मनरंजन गारव उत्तं) मनरंजन गारव की बात कर रहे हो (गारव परिनाम कलिस्ट गलियं च) गारव के दुष्ट कठोर परिणाम सब गल जाने वाले * हैं (आवरनं नह दिट्ठ) आवरण को मत देखो (न्यान सहावेन कम्म संषिपनं) ज्ञान स्वभाव से सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ-५२.५३.५४ लोभ, भय, गारव भाव-यह सूक्ष्म परिणाम हैं, जो साधक को पूर्व संस्कार वश होते हैं । यह सब नवमें, दसवें 4 गुणस्थान में अपने आप विला जाते हैं। यह सब परिणाम अपने आप गलने क्षीण होने वाले हैं, कुछ ही क्षण होश में रहकर देखें तो सब अपने आप विला जाते हैं। लोभ, भय, गारव आदि के जितने भी परिणाम हैं यह सब कर्मोदय जन्य हैं, यह आत्मा का स्वभाव नहीं है और आत्म स्वभाव में यह नहीं हैं। अपने स्वरूप की विस्मृति होने पर अज्ञान दशा में यह होते हैं। देह, प्राण, इंद्रियां, मन और बुद्धि इन उपाधियों में से जिस-जिस के साथ साधक की चित्त वृत्ति का संयोग होता है, उसी-उसी भाव की उसको प्राप्ति होती है। पूर्व संस्कार, मन के संकल्प द्वारा जो भाव कर्म का बंध होता है वह भी अपने समय पर अपने आप चलने लगते हैं । साधक को इनमें जुड़ना या भयभीत नहीं होना चाहिये, अपने में स्वस्थ सावधान होश में KS निर्भय निर्द्वन्द मस्त रहे तो यह सब भाव विला जाते हैं। जैसे-असावधानी पूर्वक हाथ से छूटकर सीढ़ियों पर गिरी गेंद नीचे चली जाती है, वैसे ही अपने लक्ष्य, ब्रह्म स्वरूप, ममल स्वभाव से हटकर थोड़ा सा चित्त बहिर्मुख हो जाता है तो वह नीचे की ओर ही गिरता जाता है। दु:ख के कारण और मोह रूप अनात्म चिंतन को छोड़कर आनंद स्वरूप आत्मा का चिंतन करो, जो साक्षात् मुक्ति का कारण है। अनादिकाल से कर्म संयुक्त आत्मा में कर्ममल, नोकर्म मल तथा कर्म के संयोग के निमित्त से हुए रागादि क्रोधादि भावमल, इन तीनों मलों के आवरण के कारण, आत्मा जो कि स्वयं शुद्ध चैतन्य स्वरूप आनंद कंद है, 9 अप्रगट रूप था। जब ज्ञानी साधक अपने ममल स्वभाव की साधना करता है तो यह कर्ममल आवरण दूर हो जाते हैं, विला जाते हैं, आत्मा अपने सचिदानंद स्वरूप में प्रगट हो जाता है। ___ आकांक्षा का नाम ही वेद्यभाव है, आकांक्षा को भोगने वाला भाव वेदक भाव कहा गया है। दोनों भाव कर्मोदय में होते हैं, अत: दोनों ही विभाव हैं और उनमें कालभेद भी है । जब वेद्यभाव होता है तब वेदकभाव की उत्पत्ति नहीं होती और जब वेदक भाव होता है तब तक वेद्यभाव समाप्त हो जाता है। दोनों एक साथ कभी नहीं हो सकते इसलिये कांक्ष्य भाव (चाहने वाले) की ****** 半长长长长长长 关多层多层司朵》卷卷

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