Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 282
________________ गाथा-५११,५१२------ --2-5-16-21-1-1--- - श्री उपदेश शुद्ध सार जी को दृष्टि में लिया वहां अनन्त शक्तियां एक साथ निर्मल स्वरूप में परिणमित होने लगती हैं। जहां ज्ञान अभेद आत्मा को लक्ष्य में लेकर परिणमित हुआ, वहां उस ज्ञप्ति मात्र भाव के साथ अनंत शक्तियां भी निर्मल स्वरूप में उछलती हैं यही मुक्तिमार्ग है। २८. गहियं भाव, २९. जोयंतो भावगहियं च सुख सुद्ध, गहयंतो ममल सुद्धसभावं । जोयंतो जोग जुक्तं, जोयंतो न्यानदंसन समग्गं ॥५११॥ अन्वयार्थ - (गहियं च सुद्ध सुद्ध) आत्मा शुद्ध है, शुद्ध है, इस भाव को ग्रहण कर रहे हो (गहयंतो ममल सुद्ध सभावं) अपना ममल शुद्ध स्वभाव है इस धारणा को गहो (जोयतो जोग जुक्तं) योग की युक्ति से योग साधना कर रहे हो (जोयंतो न्यान दंसन समग्गं) जो अपना, ज्ञान दर्शन से समग्र, परिपूर्ण ममल स्वभाव है उसमें जुड़ जाओ यही सचा योग है। विशेषार्थ-२८. गहियं भाव- (ग्रहण करने का भाव) आत्मा शुद्ध है, शुद्ध है इस भाव को ग्रहण कर रहे हो परंतु अपना ममल शुद्ध स्वभाव है इस धारणा को गहो, अपने स्वरूप में दृढ स्थित रहो, शुद्धात्मानुभव ही इष्ट है, इसी से केवलज्ञान होगा। २९. जोयंतो भाव - (योग साधना करने का भाव) योग की विधि से योग साधना कर रहे हो, मन वचन काय को साध रहे हो परन्तु यह तो पर हैं, जड़ हैं, इनको कैसे साधोगे? ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण अपने शुद्ध स्वभाव को साधो, इसमें जुड़ जाओ यही सबा योग है। मोक्ष चाहने वाले साधक को उचित है कि सर्व ही क्रियाकांड व मन वचन काय की क्रिया का कर्तृत्व, अपनत्व छोड़ देना चाहिये । अपने स्वरूप की ही सत्ता में रहना चाहिये, अपने स्वरूप को अभेद ग्रहण करना, शुद्ध असंख्यात प्रदेशी अखंड स्वरूप ग्रहण करना कि मै सिद्ध के समान शुद्ध निरंजन, निर्विकार, पूर्णज्ञान दर्शनवान, परमानंद मयी, अमृत का अगाध * सागर हूं। मैं परम कृतकृत्य जीवन्मुक्त हूं। इस धारणा को ग्रहण करना ऐसी * ही योग स्थिति में रहना चाहिये। निश्चय से में ज्ञान दर्शन से परिपूर्ण रत्नत्रय स्वरूपहूँ।मन, वचन, काय से अपने उपयोग को हटाकर ममल स्वभाव में तिष्ठना ही योग साधना है। भाव निम्रन्थ ही वास्तव में मोक्ष का मार्ग है। *HARASHTRA ३०. मानंतु भाव, ३१ रचयंति भावमानंतु अप्प मानं, मानंतो सबप्प कम्म विपनं च। रचयंति विगतरूवं, रचयंतो अविगत कम्म गलियंच॥५१२॥ अन्वयार्थ - (मानंतु अप्प मान) मानते हो, सिर्फ आत्मा को तो मानते हो (मानंतो सुद्धप्प कम्म षिपनं च) मानो तो शुद्धात्मा को मानो, शुद्धात्मा को मानने से ही कर्मों का क्षय होता है (रचयंति विगत रूवं) जो रूप से विगत अर्थात् अमूर्तिक है, उसमें रचना जमना चाहते हो (रचयंतो अविगत कम्म गलियं च) तो जो अविगत अविनाशी है, ऐसे अपने ध्रुव स्वभाव में रचो, उसी में जमो, इससे सारे कर्म गल जाते हैं। ॐ विशेषार्थ-३०.मानंतु भाव-(मानने का भाव) अपने आत्म स्वरूप को मानते हो, स्वीकार कर लिया कि मैं आत्मा हूं परन्तु जो सब संयोगों से & भिन्न कर्मादि से अलिप्त न्यारा, अपना शुद्धात्म स्वरूप है उसे मानो, शुद्धात्मा को स्वीकार करो, इससे सारे कर्म क्षय होते हैं। परमात्म स्वरुप का आश्रय, उसी की स्वीकारता, अपने सत्ता स्वरुप की मान्यता ही कर्मों को क्षय करने वाली है। ३१. रचयंति भाव - (रच पच जाना, एकमेक हो जाने के भाव) अमूर्तिक, अरूपी आत्म स्वरूप में रचना, जमना चाहते हो परंतु जो अविगत, अविनाशी अपना सिद्ध स्वरूप है उसमें रचो, जमो तो सब कर्म गल जाते हैं। अपने आत्म स्वरूप को निश्चय से परम शुद्ध, शुद्धात्मा, परमात्मा मानकर उसमें जमने से कर्मों की निर्जरा होती है। जब योगी साधक शुद्धोपयोग की स्थिति में जमता है तब शुक्ल ध्यान से घातिया कर्मों का क्षय होता है, जिससे केवलज्ञान अरिहंत पद प्रगट हो जाता है। सिद्ध भगवान आठों ही कर्मों से रहित प्रगटपने शुद्धात्मा हैं, वहां शरीरादि किसी भी पुद्गल का संयोग नहीं है। पुरुषाकार अमूर्तिक ध्यानमय आत्मा को सिद्ध कहते हैं जो निरंजन निर्विकार हैं। सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधत्व, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व इन प्रसिद्ध आठ गुणों से विभूषित हैं, परम कृतकृत्य हैं, परमानंदमय हैं। ऐसे अपने सिद्ध स्वरूप में रमना जमना, इसी से सब कर्म क्षय होते हैं। २८२ मर-5-16--1-1- 12 HH---

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