Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 307
________________ * E-5-5-9-5 -------- ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी अप्प सहावं दिडं, पर पज्जाव विषय विरयंति । मिच्छात राग विपन, सूषम सभाव मुक्ति गमनं च॥५७८॥ अन्वयार्थ- (षडी विसेसं उत्तं) खड़िया समान शुद्ध स्वभाव की विशेषता को कहते हैं (लषिज्जइ लष्यनेहि संजुत्तं) जो लक्ष्य बनाया उस लक्ष्य की पूर्ति में संयुक्त रहना अर्थात् अपना इष्ट निज शुद्धात्मा है उसकी अनुभूति करने में लगे रहना (सूषम सुभाव सुद्ध) अपने आत्मा का सूक्ष्म स्वभाव परिपूर्ण शुद्ध है, इस पर दृष्टि रहने से (कम्मं षिपिऊन सरनि संसारे) संसार का परिभ्रमण और सब कर्म क्षय हो जाते हैं। (अप्प सहावं दिट्ठ) आत्म स्वभाव को देखने से (पर पज्जाव विषय विरयंति) पर पर्याय और विषयादि छूट जाते हैं (मिच्छात राग विपनं) मिथ्यात्व और राग क्षय हो जाता है (सूषम सभाव मुक्ति गमनं च) अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव में रहने से मुक्ति प्राप्त होती है। विशेषार्थ - रागादि रहित शुद्ध आत्मा का अनुभव करने से आत्मा कर्म रहित, शुद्ध स्वभाव का धारी सिद्ध हो जाता है। आत्मा अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव का धारी है, आत्मानुभूति में रत रहने से पर पर्याय विषयादि कर्म संयोग छूट जाते हैं, मिथ्यात्व और राग क्षय हो जाता है । अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव में रहने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। जो अनंत संसार रूपी वन के भ्रमण के कारण ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूपी बैरी, उनको जीतने वाला है, वह केवलज्ञानादि अनंत गुणमयी है और इंद्रिय विषय से रहित,रागादि विकल्पों से रहित,परमानंद ही जिसका स्वभाव है, ऐसा सूक्ष्म स्वभाव वाला उत्कृष्ट अनंत ज्ञानादि गुण रूप आत्मा परमात्मा गाथा-५७७-५८०********* जाते हैं, वह साधु पद से सिद्ध पद पाता है, यही मुक्ति प्राप्त करने का मूल आधार है। निज आत्म तत्त्व जिसके मन में प्रकाशमान हो जाता है, वह ही साधु सिद्धि को पाता है। कैसा है, वह तत्त्व? जो रागादि मल रहित और ज्ञान रूप है जिसको परम मुनीश्वर सदा अपने चित्त में ध्याते हैं, जो तत्त्व इस लोक में सब प्राणियों के शरीर में मौजूद है और आप देह से रहित है, तीन भुवन में श्रेष्ठ है, जिसकी आराधना करके शांत परिणामी संत पुरुष सिद्ध पद पाते हैं। अज्ञान संसार मार्ग है, सम्यकज्ञान मोक्षमार्ग है प्रश्न- संसार परिभ्रमण का कारण क्या है और मुक्ति का कारण क्या है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंअन्यान भाव सहियं, कम्मं उववन्न नन्तनन्ताई। अनेय काल भ्रमन, न्यान सभाव कम्म विपनं च ॥५७९ ॥ अन्यानं पज्जावं, सहियं उववन्न कम्म विविहं च। न्यान सहावं दिह,कम्म गलियं च अंतर्मुहूर्तस्य ॥५८०॥ अन्वयार्थ-(अन्यान भाव सहियं) अज्ञान भाव सहित जीव (कम्म उववन्न नन्तनन्ताई) अनंतानंत कर्मों का आस्रव बंध करता है (अनेय काल भ्रमनं) और इससे अनेक काल तक संसार में भ्रमण करता है (न्यान सभाव कम्म षिपनं च) ज्ञान स्वभाव में लीन होने से कर्मों का क्षय हो जाता है। (अन्यानं पज्जावं सहियं) अज्ञान रूपी पर्याय सहित होने से (उववन्न कम्म विविहं च) नाना प्रकार कर्मों का बंध होता है अर्थात् नाना प्रकार के कर्म पैदा होते हैं (न्यान सहावं दि8) जब ज्ञान स्वभाव की दृष्टि होती है अर्थात् आत्मा का अनुभव हो जाता है तब (कम्म गलियं च अंतर्मुहूर्तस्य) यदि एक अंतर्मुहूर्त ज्ञान स्वभाव में लीनता हो जावे तो घातिया कर्म क्षय होकर केवलज्ञान पैदा हो जाता है। विशेषार्थ- अज्ञानभाव संसार का कारण है और शान स्वभाव सम्यज्ञान मुक्ति का कारण है। अज्ञान भाव सहित जीव सदा कर्मों का बंध कर संसार में भ्रमण करता रहता है। यह शरीर ही मैं हूं, यह शरीरादि मेरे हैं और मैं इनका कर्ता हूं यह ** ******* संसार अवस्था में निश्चयनय कर शक्ति रूप विराजमान खड़ी स्वभाव आत्मा जिन है इसलिये संसारी को शक्ति रूप जिन कहते हैं और केवली को व्यक्ति रूप जिन कहते हैं । द्रव्यार्थिक नय कर जैसे भगवान हैं वैसे ही सब जीव हैं, इस तरह निश्चयनय कर जीव को परमब्रह्म कहो, परम शिव कहो, जितने भगवान के नाम हैं, उतने ही निश्चय नय से विचारो तो सब जीवों के हैं, सभी जीव जिन समान हैं। जो सम्यक्दृष्टि ज्ञानी, अपने अतीन्द्रिय सूक्ष्म स्वभाव की साधना में * रत रहता है उसके सब विषय विकार रागादि भाव, मिथ्यात्वादि कर्म क्षय हो ** **** *

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