Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 315
________________ २७२६६२७ *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी ७का अभ्यास करने के लिये वह स्व है (अर्थात् आत्म स्वरूप है) और यह पर है, इस भेद को परमार्थ से जानकर स्व में स्थिर होता है और पर से राम के योग से सर्वत्र विरमता (रूकता) है। यह रीति ज्ञान वैराग्य की शक्ति के बिना नहीं हो सकती। + जो पुरुष सम्यक्त्व रूपी रत्न राशि से सहित हैं वे धन धान्यादि वैभव से रहित होने पर भी वास्तव में वे वैभव सहित ही हैं, और जो पुरुष सम्यक्त्व से रहित हैं वे धनादि सहित हों तो भी दरिद्री ही हैं। * हे मुने! तू सम्यक्त्व के गुण और मिथ्यात्व के दोषों को जानकर सम्यक्त्व रूपी रत्न को भावपूर्वक धारण कर यह गुण रूपी रत्नों में सार है और मोक्ष रूपी मंदिर का प्रथम सोपान है अर्थात् चढ़ने के लिये पहली सीढ़ी है। सम्यक्त्व सहित जीव को विघ्न भी हो तो वह उसे उत्सव समान मानता है और मिथ्यात्व सहित जीव को परम उत्सव भी हो तो वह उसे महा विध्न है । + जिसे स्व-पर का भेदविज्ञान नहीं है वही पर द्रव्य में अहंकार-ममकार करता है, भेद विज्ञानी अहंकार-ममकार नहीं करता; इसलिये पर द्रव्य में प्रवृति का कारण भेदविज्ञान का अभाव है और स्वद्रव्य में प्रवृति का कारण भेदविज्ञान ही है। + संशय, विमोह और विभ्रम से रहित सहज शुद्ध केवलज्ञान दर्शन स्वभावी निजात्म स्वरूप का ग्रहण-परिच्छेदन- परिच्छिति और परद्रव्य का स्वरूप अर्थात् भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म का स्वरूप, पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों का स्वरूप तथा अन्य जीव का स्वरूप जानना, वह सम्यक्ज्ञान है। सम्यक्दर्शन सहित सम्यक्ज्ञान को दृढ करना चाहिये। जिस प्रकार सूर्य समस्त पदार्थों को तथा स्वयं अपने को यथावत् दर्शाता है, उसी प्रकार जो अनेक धर्मयुक्त स्वयं अपने को अर्थात् निज आत्मा को तथा पर पदार्थों को ज्यों का त्यों बतलाता है, उसे सम्यक्ज्ञान कहते हैं। * जिस प्रकार नाव में बैठे हुए किसी मनुष्य को नाव की गति के संस्कार वश, पदार्थ विपरीत स्वरूप से समझ में आते हैं अर्थात् स्वयं गतिमान होने पर भी स्थिर है और वृक्ष पर्वत आदि स्थिर होने पर भी गतिमान समझ में आते हैं उसी प्रकार जीव को मिथ्यादर्शन के उदयवश नौ पदार्थ विपरीत स्वरूप से समझ में आते हैं। * जिस समय सम्यक्ज्ञान रूपी दीपक से भोगों की निर्गुणता जानने में आती है अर्थात् भोग जरा भी गुणकारी नहीं हैं यह बात अचल रूप से हृदय पर अंकित हो जाती है उस समय भोग और संसार से वैराग्य होता है। + क्रोधादिक और ज्ञान भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं, न तो ज्ञान में क्रोधादि हैं और न 000000000000000000 ३१५ सार सूत्र -*-*-*-*-* क्रोधादि में ज्ञान है। ऐसा भेदज्ञान हो तब उनमें एकत्वरूप अज्ञान का नाश होता है और अज्ञान के नाश हो जाने से कर्म बंध भी नहीं होता। इस प्रकार ज्ञान से ही बंध का निरोध होता है। आत्मा सर्वज्ञ स्वरूप है तथा राग द्वेषादि व कर्मादि रहित शुद्ध है। भव्य जीव इसी का साधन करते हैं, जिसने आत्मज्ञान रहित व्रत पाले, चारित्र पाला उसने मिथ्या आत्मा का ही सेवन किया, मिथ्या आगम को ही जाना । + केवलज्ञानी परमात्मा सूर्य समान केवलज्ञान द्वारा आत्मा को देखते अनुभवते हैं और श्रुतकेवली दीपक समान श्रुतज्ञान द्वारा आत्मा को देखते अनुभवते हैं। इस प्रकार केवली में और श्रुतकेवली में स्वरूप स्थिरता की तारतम्यता रूप भेद ही मुख्य है। कम ज्यादा पदार्थों के जानने रूप भेद अत्यन्त मौण है; इसलिये बहुत जानने की इच्छारूप क्षोभ छोड़कर स्वरूप में ही निश्चल रहना योग्य है। यही केवलज्ञान प्राप्ति का उपाय हैं। जैसा कारण होता है वैसे कार्य की उत्पत्ति होती है, सम्यकदृष्टि ही अपने शुद्धोपयोग के अभ्यास से अनंत दर्शन का प्रकाश कर सकता है। शुद्धात्मा के अनुभव से ही आत्मा केवलज्ञान स्वरूप हो जाता है व आत्मा के अहितकारी कर्मों का क्षय हो जाता है। शास्त्र द्वारा मोक्षमार्ग को जान लेने पर भी सत्क्रिया से रहित ज्ञान इष्ट लक्ष्य प्राप्त नहीं करा सकता। जैसे मार्ग का जानकार पुरुष इच्छित देश की प्राप्ति के लिए समुचित प्रयत्न न करे तो वह मन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता अथवा अनुकूल वायु की प्रेरणा के अभाव में जलयान इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच सकता । + चारित्र शून्य पुरुष का विपुल शास्त्राध्ययन भी व्यर्थ ही है, जैसे कि अन्धे के आगे लाखों-करोड़ों दीप जलाना व्यर्थ है। चारित्र सम्पन्न का अल्प ज्ञान भी बहुत है और चारित्र विहीन का बहुत श्रुतज्ञान भी निष्फल है। निश्चयनय के अभिप्रायानुसार आत्मा का आत्मा में आत्मा के लिए तन्मय होना ही निश्चय सम्यक्चारित्र है। ऐसे चारित्रशील योगी को ही निर्वाण की प्राप्ति होती है। + वास्तव में चारित्र ही धर्म है। इस धर्म को शमरूप कहा गया है। मोह व क्षोभ से रहित आत्मा का निर्मल परिणाम ही शम या समता रूप है। समता, माध्यस्थ भाव, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव-आराधना यह सब एकार्थक हैं। + जिसने स्व- द्रव्य व पर द्रव्य के भेदज्ञान के श्रद्धान तथा आचरण द्वारा पदार्थों तथा सूत्रों को भली भांति जान लिया है, जो संयम और तप से युक्त है, विगतराम है, *

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