Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 292
________________ -*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी झानारुढ़ सुभावं नाना प्रकार नन्त परिनामं । टूटंति मिच्छ भाव, टंकारं मुक्ति कम्म चिपनं च ।। ५३२ ।। अन्वयार्थ (कमल सुभाव संजुत्तं) कमल स्वभाव, ज्ञायक भाव प्रगट होने पर ( षिपिओ कम्मान तिविहि जोएन ) त्रिविध योग से अर्थात् मन वचन काय की गुप्ति से कर्मों का क्षय हो जाता है (गगनं तु नंत दिट्ठ) आकाश समान अनंत चतुष्टय स्वरूप दिखता है (घन नन्त दिट्टि कम्म विलयंति) जैसे आकाश में बादल के समूह देखते ही देखते विला जाते हैं वैसे ही सब कर्म विला जाते हैं। - (नन्त प्रकारं जाने) वह पदार्थों के अनंत भेद जानता है (चरनं चरंति सुद्ध दंसनं ममलं) वह शुद्ध दर्शन से ममल स्वभाव में आचरण करता है (नन्दं परमानन्दं) आत्मा आनंद परमानंद में मगन रहता है (जाता उववन्न कम्म षिपनं च) ज्ञाता स्वभाव पैदा होते ही कर्म क्षय हो जाते हैं । (झानारूढ सुभावं ) जब आत्मा ज्ञान पूर्वक स्वभाव के ध्यान में आरूढ़ होता है (नाना प्रकार नन्त परिनामं) तब नाना प्रकार के अनंत परिणाम (टूटंति मिच्छ भावं) और मिथ्या भाव टूट जाते हैं, चकनाचूर हो जाते हैं ( टंकारं मुक्ति कम्म षिपनं च) मुक्ति की टंकार अर्थात् मुक्त होने की दृढ़ता होने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं। विशेषार्थ कमल स्वभाव ज्ञायक भाव प्रगट होने पर जब मन वचन काय से उपयोग हट जाता है तब कर्मों का क्षय होता है। आकाश समान अपने अनंत चतुष्टय स्वरूप को देखने पर, जैसे- आकाश में बादलों का समूह देखते ही देखते विला जाता है वैसे ही सब कर्म विला जाते हैं। - ज्ञाता स्वभाव प्रगट होने से स्व-पर का यथार्थ स्वरूप जानने में आता है, अपने शुद्ध ममल स्वभाव के दर्शन संयमाचरण चारित्र होने से आनंद परमानंद में मगन रहता है, इससे सब कर्म क्षय होते हैं। शुद्धोपयोग में लीन होने से सर्व ही रागादि भाव व अज्ञानमयी भाव नष्ट हो जाते हैं तथा केवलज्ञान का प्रकाश होता है तब ही यह टंकार दृढ़ता होती है कि आत्मा मुक्त होगा तब शीघ्र ही शेष कर्म क्षय हो जाते हैं और आत्मा परिपूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है। मैं एक अखंड ज्ञायक मात्र हूं, विकल्प का एक अंश भी मेरा नहीं है, ऐसा स्वाश्रय ज्ञायक भाव होना वह मुक्ति का कारण है। २९२ गाथा ५३२, ५३३ ****** अति अल्पकाल में जिसे संसार परिभ्रमण से मुक्त होना है, ऐसे अति आसन्न भव्य जीव को निज परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है। जिसमें कर्म की कोई अपेक्षा नहीं है, ऐसा जो अपना शुद्ध परमात्म तत्त्व उसका आश्रय करने से सम्यक्दर्शन होता है और उसी का आश्रय करने से सम्यक् चारित्र होता है और उसी का आश्रय करने से अल्पकाल में मुक्ति होती है। स्वानुभूति होने पर स्व-पर का यथार्थ स्वरूप समझ में आता है । सम्यक्ज्ञान होने पर ज्ञायक भाव प्रगट होता है, जिसमें अनाकुल आल्हादमय, एक समस्त ही विश्व पर तैरता विज्ञान घन परम पदार्थ परमात्मा अनुभव में आता है। अंतर में स्व संवेदन ज्ञान खिला वहां स्वयं को उसका वेदन हुआ फिर कोई दूसरा उसे जाने या न जाने, उसकी ज्ञानी को अपेक्षा नहीं है। वह तो स्वयं अंतर में अकेला अकेला अपने एकत्व में आनंद परमानंद रूप से परिणमित हो ही रहा है इससे पूर्व कर्म बंधोदय क्षय होते हैं। शुद्ध चैतन्य ज्ञायक प्रभु की दृष्टि, ज्ञान तथा अनुभव वह साधक दशा है। उससे पूर्ण साध्य दशा, सिद्ध स्वरूप प्रगट होता है। साधक दशा है तो निर्मल ज्ञान धारा परंतु वह भी आत्मा का मूल स्वभाव नहीं है क्योंकि वह साधनामय अपूर्ण पर्याय है । ज्ञायक प्रभु पूर्णानंद का नाथ सच्चिदानंदघन परमात्मा है, उस निज पूर्णानंद प्रभु की साधना, परमानंद स्वरूप में एकाग्रता होने से सब कर्म क्षय होकर मुक्ति सिद्ध पद की प्राप्ति होती है । - प्रश्न- इसके लिये अपने को क्या करना चाहिये ? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंममात्मा सुकिय सुभावं ममात्मा सुद्धात्म राग चिपनं च । निम्मल ममल सहावं, कम्मं चिपिऊन निव्वुए जंति ।। ५३३ ।। अन्वयार्थ - (ममात्मा सुकिय सुभावं ) मेरा आत्मा निश्चय से अप ही स्वभाव में रहता है, स्वकृत, अनादि निधन सुख स्वभाव वाला है (ममात्मा सुद्धात्म राग षिपनं च) मेरा आत्मा ही शुद्धात्मा है इसी भाव से राग का क्षय हो जाता है (निम्मल ममल सहावं) वीतराग शुद्ध केवलज्ञान मय ममल स्वभाव है (कम्मं षिपिऊन निव्वुए जंति) इससे सारे कर्म क्षय होकर निर्वाण की प्राप्ति होती है। विशेषार्थ अपने स्वरूप का स्वाभिमान बहुमान जगाना कि मेरा - *

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