Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 294
________________ 2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-५३६,५३७*- ---2---- E-5-16 -E E को देखने वाली दृष्टि ही शुद्ध दृष्टि, सम दृष्टि है (न्यानं ममल सुसमय) * ज्ञान में अपना ममल शुद्धात्म स्वरूप आया (उववन्नं इस्ट अनिस्ट विलयं *च) अपना इष्ट स्वरूप प्रगट हुआ, वहां सारे अनिष्ट विला जाते हैं। विशेषार्थ- जैसा कारण होता है, वैसा कार्य होता है। जब अपनी दृष्टि विभाव रूप होती है, पर पर्याय को देखती है तब कर्मों का आश्रव बंध होता है तथा अपनी दृष्टि अपने शुद्ध ममल स्वभाव अनंत चतुष्टय स्वरूप को देखती है तब कर्मों की संवर पूर्वक निर्जरा होती है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। केवलज्ञानादि अनंत गुणों की राशि आत्मा है तथा मिथ्यात्व रागादि अंतर के भाव तथा देहादि बाहर के परभाव यह सब आत्मा से विलक्षण परभाव हैं, इनको छोड़कर जो साधक अपने केवलज्ञानादि अनंत चतुष्टय रूप कारण समयसार का चिंतन-ध्यान करता है, वह कार्य समयसार निज शुद्धात्म तत्त्व सिद्ध स्वरूप को उपलब्ध करता है। अपने इष्ट के प्रगट होने पर अनिष्ट अपने आप विला जाते हैं। यह आत्मा वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान में परिणत हुआ अंतरात्मा होकर अपने को अनुभवता हुआ, वीतराग सम्यक्दृष्टि होता है, तब सम्यकदृष्टि होने के कारण से ज्ञानावरणादि कर्मों से शीघ्र ही छूट जाता है, रहित हो जाता है। यहां जिस हेतु वीतराग सम्यक्दृष्टि होने से यह जीव कर्मों से छूटकर सिद्ध हो जाता है इसी कारण वीतराग चारित्र के अनुकूल जो शुद्धात्मानुभूति रूप वीतराग सम्यक्त्व है वही ध्यावने योग्य है, ऐसा अभिप्राय है। प्रश्न - आत्मा और कर्म में बड़ा कौन है, विशेषता किसकी है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंदीर्घ सहाव सुसमयं, दीर्घ सुभाव राग विलयं च। नेयं च न्यान रूवं, पादं स्वादं च कम्म विपनं च ॥५३६॥ माया सरनि अनन्तं, माया कम्मान अनंत मोहंध। छीनंति न्यान रूवं, छीनंति अनिस्ट सरनि संसारे ।। ५३७॥ अन्वयार्थ - (दीर्घ सहाव सुसमयं) बड़ा अपना शुद्धात्म स्वभाव ही है इसी की विशेषता है (दीर्घ सुभाव राग विलयं च) श्रेष्ठ स्वभाव शुद्धोपयोग से राग विला जाता है (नेयं च न्यान रूवं) ज्ञान स्वभाव के प्रगट होते ही (षादं **** * ** स्वादं च कम्म षिपनं च) कर्ता भोक्तापने के भाव और सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। (माया सरनि अनन्तं) माया का चक्र भी अनंत है (माया कम्मान अनंत मोहंधं) यह माया अनंत कर्मों द्वारा दर्शन मोह से अंधा करने वाली है (छीनंति न्यान रूवं) परंतु ज्ञानस्वरूप के प्रगट होते ही क्षय हो जाती है, विला जाती है (छीनंति अनिस्ट सरनि संसारे) और अनिष्टकारी संसार परिभ्रमण भी समाप्त हो जाता है। विशेषार्थ- अपना शुद्धात्म स्वरूप ही श्रेष्ठ है जो अनादि निधन अविनाशी है। कर्म तो सब नाशवान क्षणभंगुर हैं। अपने शुद्धात्म स्वरूप का ज्ञान प्रगट होते ही सब राग भाव, कर्ता भोक्तापन और सब कर्म बंधोदय क्षय हो जाता है। वैसे माया का चक्र भी अनंत है, जब तक अपने आत्म स्वरूप का बोध नहीं जागता है, तब तक इस माया के चक्कर में अनंतकर्मों का बंध होता है और दर्शन मोह में जीव अंधा रहता है परंतु अपने ज्ञान का प्रकाश होते ही यह सब माया का चक्कर और संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाता है। यह जीव अनादिकाल की परिपाटी से ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय के साथ परिणमन करता हुआ जो अपने अशुद्ध परिणाम करता है, उन्हीं का यह अज्ञानी जीव अपने को कर्ता तथा भोक्ता मान लेता है कि मैंने अच्छा किया या बुरा किया या मैं सुखी हूं या दु:खी हूं। इस अज्ञानमयी जीव के परिणामों का निमित्त पाकर दूसरी पौद्गलिक कर्मवर्गणायें स्वयं कर्म रूप होकर बंध जाती हैं। जब यह जीव स्वयं अपने अशुद्ध भावों में परिणमन करता है, उस समय पूर्व में बंधा पौद्गलिक कर्म उदय में आकर उस अशुद्ध भाव का निमित्त होता है। इस तरह कर्म फल भावों को व कर्मों के बंध को व कर्म के उदय को बहिरात्मा अपना मान लेता है। निश्चय से आत्मा उन सब कर्म कृत भावों से जुदा है तो भी अज्ञानी जीव को यही प्रतिभास या भ्रम रहता है कि यह सब भाव, यह विकारी दशा मेरी ही है। यही माया का चक्कर है जो संसार परिभ्रमण कराता है। ज्ञानी अपने शुद्धात्म स्वरूप को जानता है इसलिये रागादि भावों को अपने नहीं मानता और उनका कर्ता नहीं होता, इससे यह रागादि भाव और सब कर्म क्षय हो जाते हैं । आत्मा का संबंध किसी परवस्तु से नहीं है। यह EEEEN * २९४

Loading...

Page Navigation
1 ... 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318