Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 298
________________ 2-4-******* श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-५४८** * E-5-16 HE- S -- (दोषं परदव्व परमहो तंपि) परद्रव्य और परोन्मुखी दृष्टि दोष विला * जाता है। (दुबुहि उवन्नं विरयं) शुद्धोपयोग होने पर दुर्बुद्धि का होना बंद हो * जाता है (दुकृत पर दव्व भाव गलियं च) सर्व दुष्कृत तथा परद्रव्य सम्बंधी भाव गल जाते हैं (मान परमान सुद्ध) आत्मा का बहुमान अनुभव प्रमाण हो जाता है कि (ममात्मा न्यान सहाव समयं च) मेरा आत्मा ज्ञान स्वभावी शुद्धात्मा है। विशेषार्थ- जहाँ तक स्वरूप में लयता रूप स्वानुभव नहीं है, वहाँ तक रागादि भाव होते हैं तथा राग सहित वचन व काय की प्रवृत्ति होती है,इसी से मन सक्रिय रहता है। स्वानुभव रूप शुद्धोपयोग के होते ही मन, वचन, काय का पर पदार्थ में परिणमन बंद हो जाता है। स्व संवेदन ज्ञान व स्वानुभव प्रकाश में मन विला जाता है। स्वानुभव में ही शुद्धात्मा का प्रकाश है, इसी को शुक्लध्यान कहते हैं। इसी से मोहनीय कर्म तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय कर्म का क्षय होकर केवलज्ञान प्रगट होता है फिर शरीर सम्बंधी सर्व परिणमन छूट जाता है व आत्मा अकेला ही निज स्वरूप में रह जाता है। शुद्धोपयोग के साधन से ही अरिहंत व सिद्ध पद होता है। सिद्ध सदा अपने निश्चल स्वभाव में आनंद स्वरूप रहते हैं। शुद्धोपयोगियों के ही पांच इन्द्रिय छठे मन को रोकने रूप संयम शील और तप होते हैं। शुद्धोपयोगियों के ही सम्यक्दर्शन और वीतराग स्वसंवेदन ज्ञान होता है। शुद्धोपयोगियों के ही कर्मों का नाश होता है इसलिये शुद्धोपयोग ही इष्ट है। मिथ्यात्व, रागादि से रहित शुद्ध परिणाम, वही मेरे आत्मा का शुद्ध स्वभाव है और अशुद्ध परिणाम अपने नहीं हैं सो शुद्ध भाव को ही धर्म समझकर अंगीकार करो। यही शुद्धोपयोग रूप धर्म चारों गतियों के दुःखरूप संसार में पड़े हुए इस जीव को निकालकर आनंद स्वरूप में रखता है। जो समस्त शुभाशुभ संकल्प-विकल्पों से रहित जीव का शुद्ध भाव * शुद्धोपयोग है वही निश्चय रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का मार्ग है । जो साधक शुद्धात्म परिणाम से च्युत हो जावे वह किस तरह मोक्ष को पा सकता है ? * इसलिये साधक को अपने इष्ट निज शुद्धात्मा की साधना में लगे रहना चाहिये। *शुद्धोपयोग में मन आदि समस्त कर्म विला जाते हैं। अपने स्वरूप की अनुभूति का स्वाभिमान बहुमान जगाते हुए शुद्धोपयोग की साधना करो तो यह सब ******* **** मन और शरीर संबंधी क्रिया कर्म स्वयमेव विला जायेंगे। कमल स्वभाव ज्ञायक भाव सहजानंद में रहने से सब संसार, शरीर, कर्मोदय संयोग छूट जाता है। इसी की विशेषता रूप आगे गाथा कहते हैंतत्वं च तत्व रूवं, तत्वं च परम तत्व परमिस्टी। जिन वयनं जयवंतं, जयवंतं लोयलोय ममलं च ॥५४८॥ अन्वयार्थ - (तत्वं च तत्व रूवं) तत्त्वों में मुख्य तत्त्व आत्मा का स्वभाव है (तत्वं च परम तत्व परमिस्टी) तत्त्वों में श्रेष्ठ परम तत्त्व परमेष्ठी अरिहंत परमात्मा हैं (जिन वयनं जयवंतं) यह जिनवाणी जयवंत रहो, जिसके प्रताप से परम तत्त्व का बोध होता है (जयवंतं लोयलोय ममलं च) लोकालोक में अपना ममल स्वभाव ही जयवंत है। विशेषार्थ-जिनवाणी का भले प्रकार मनन करने से ज्ञात होता है कि सात तत्त्वों में मुख्य तत्त्व स्व स्वरूप आत्मा है, जो स्व-पर प्रकाशक, ज्ञायक स्वभाव है तथा आत्मा ही परम तत्त्व परमेष्ठी, परमात्मा है । यह जिनवाणी जयवंत रहो,जिसके प्रताप से परम तत्त्व का बोध होता है। जब अपने स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान होता है तब अंतर में जय-जयकार मचती है कि जिनेन्द्र के वचन सत्य हैं,ध्रुव हैं, प्रमाण हैं। इस तरह तत्त्व दो प्रकार का कहा गया है- स्वतत्त्व और परतत्त्व । अपना आत्मा स्वतत्त्व है और पांच परमेष्ठी पर तत्त्व हैं । स्वतत्त्व भी दो प्रकार है- सविकल्प, निर्विकल्प । सविकल्प तत्त्व से कर्मों का आश्रव होता है, निर्विकल्प तत्त्व से आश्रव नहीं होता है, जो निर्विकल्प तत्त्व है वही सार है, * वही मोक्ष का कारण है, वही स्वानुभव रूप है, वही शुद्धोपयोग रूप है। ऐसा जानकर सर्व ममता त्यागकर उस शुद्ध निर्विकल्प आत्म तत्त्व का ध्यान करो, जहाँ यह मनन है कि मैं ज्ञाता दृष्टा हूँ, वीतराग हूँ, शुद्धात्मा परमात्मा हूँ वह सविकल्प तत्त्व है, चंचल है। जहाँ कोई विचार नहीं है, भावना नहीं है केवल स्वरूप में रमणता है वही निर्विकल्प तत्त्व, निश्चय रत्नत्रय स्वरूप, निश्चय मोक्षमार्ग है। प्रश्न- यह तो सत्य है परंतु अभी अशुद्ध पर्यायी परिणमन तो दिखाई देता है, इसके लिये क्या करें? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - २९८ -E-E E-ME E-

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