Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 304
________________ * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-५६९-५७१******** (नो कृत कम्म विपन) नो कर्म कृत शरीरादि भी क्षय हो जाता है (जैवन्तो। भाव कर उसी में निश्चय स्थिरता रुप सम्यक्चारित्र इन तीनों स्वरूप परिणत * न्यान दंसनं चरन) सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रय धर्म हुआ आत्मा समस्त कर्म बंधनों से छूटकर मोक्ष चला जाता है। रत्नत्रय धर्म की जय हो (जै जैवन्त उवन्न) जब कर्मों को जीतने का आत्मानुभव रूपी ही जयवंत है। ॐक्षायिक भाव प्रगट होता है तो जय-जयकार मचती है (नो क्रित पर दव्व भाव जो वीतराग निर्ग्रन्थ साधु अंतरंग चौदह प्रकार के भाव परिग्रह से ममता ** गलियं च) इससे नो कर्मकृत पर द्रव्य और भावकर्म गल जाते हैं। त्यागता है। शत्रु-मित्र में, तृण-स्वर्ण में व जीवन-मरण में समभाव का धारी (धी ईर्ज पंथ सुद्ध) श्रेष्ठ ज्ञानोपयोग का होना ही शुद्ध मोक्ष का मार्ग है हो जाता है, एकांत वन-उपवन, पर्वतादि के निर्जन स्थानों पर बैठकर (झान समत्थेन ऊर्ध सुद्ध सभावं) ध्यान की सामर्थ्य से श्रेष्ठ शुद्ध स्वभाव से आत्मध्यान करता है, तब एक अपने ही शुद्ध आत्मा के भाव को ग्रहण करता प्रगट होता है (जै झान ठान सुद्धं) उस शुद्ध स्थिर ज्ञान ध्यान की जय हो है व सर्व परभावों से उपयोग को हटाता है। जितने भाव, कर्मों के निमित्त से (धी ईर्ज सभाव मुक्ति गमनं च) जिससे केवलज्ञान प्रगट होता है और यह होते हैं, जो अनित्य हैं, उन सबसे राग त्यागता है। औदयिक, क्षायोपशमिक, जीव मोक्ष में चला जाता है। औपशमिक भावों से विरक्त होकर क्षायिक व पारिणामिक जीवत्व भाव को (गिर उववन्न अनन्तं) अरिहंत की दिव्यध्वनि से अनंत पदार्थों का अपना स्वभाव मानकर एक शुद्ध आत्मा की बार-बार भावना करता है, ऐसा प्रकाश होता है (नो क्रित कम्म उववन्न विलयंति) नो कर्म पैदा होना विला वीतरागी मुनि राग-द्वेष को पूर्ण रूप से जीत लेता है। जाते हैं अर्थात् शरीरादि संयोग संबंध छूट जाता है (जै नो सुभाव सुद्ध) जिस क्षपक श्रेणी पर चढ़कर अंतर्मुहूर्त में चार घातिया कर्मों का क्षय करके तरह का शुद्ध स्वभाव है (ग्रहनं षिपिऊन कम्म बन्धानं) उसको ग्रहण करने केवलज्ञानी हो जाता है फिर चार अघातिया कर्मों का भी नाश करके संसार से अर्थात् उसमें लीन होने से सारे कर्मबंध विला जाते हैं। मुक्त हो जाता है। विषेषार्थ-सम्यकदृष्टि ज्ञानी साधु कर्म बली को जीत लेता है, उसके परभावों के त्याग में ही आत्मा के निज भाव का ग्रहण होता है, तब रागादि परभाव क्षय हो जाते हैं और कर्म गल जाते हैं, यदि क्षायिक भाव प्रगट शुद्ध आत्मानुभव प्रगट होता है। इसी से तीनों प्रकार के द्रव्यकर्म, भावकर्म, हो गया तो सब कर्मों से रहित होकर मोक्ष चला जाता है। नोकर्म विला जाते हैं, यही मोक्षमार्ग है जो सदा ही आनंद अमृत का पान सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र यह रत्नत्रयमयी धर्म ही कराने वाला है तथा जय-जयकार मचाने वाला है। जयवंत है, जिसके प्रताप से निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु क्षायिक भाव प्रगट कर प्रश्न-यह विश्व जो छह द्रव्यों का समूह है तथा जीव कर्मबंधन सब कर्मों को क्षयकर नोकर्म, भाव कर्म, द्रव्यकर्म से मुक्त होकर सिद्ध परम से बंधा है, इनसे छुटने का क्या उपाय है? पद पाते हैं। - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंसम्यज्ञान सूर्य का प्रकाश होने से सब अज्ञान अंधकार विला जाता पस्टं इस्टं च सुखं, टंकोत्कीर्न भाव उवनं च । है। सम्यज्ञान के प्रताप से ही केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। अनंत चतुष्टय जै टंकोत सुभावं, पिनं षिपनं च कम्म बन्धानं ।। ५६९ ॥ स्वरूप और दिव्यध्वनि प्रगट होती है। अपने शुद्ध स्वभाव में सर्वदा स्थिर कमल सुभाव संसुद्ध, ठंकारे सुभाव मुक्ति सहियं च । होने से शरीरादि नोकर्म तथा सारे कर्म बंध क्षय हो जाते हैं। निज शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न जो वीतराग सहजानंद एकरूप जैठकारममल सहियं,कल लंकित कम्मभाव मुक्कंच॥ ५७०॥ सुखरस का आस्वाद,उसकी रुचिरूप सम्यकदर्शन, उसी शुद्धात्मा में वीतराग कमल सुभाव जिनुत्तं, पादं पंच न्यान कम्म तिक्तं च। नित्यानंद स्वसंवेदन रूप सम्यक्ज्ञान और वीतराग परमानंद परम समरसी गिरा सहाव संजुत्तं, धी इर्ज सभाव मिच्छ विलयति ॥५७१॥ ३०४ E-E-E E- HE-

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