Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 291
________________ गाथा-५२८-५३१**----- ------ F-ER RSHEME * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी विपनिकभाव संजुत्तं, दण्ड कपाटेन ईर्जपंथ सुसमय। विन्यान न्यान सुद्ध, सिद्धं संसार सरनि विलयं च ॥५२८॥ पिपिऊन कम्म तिविहं,षडी सुभावेन न्यान उववंनं। सुद्ध सहावं पिच्छदि, कम्मानं बन्ध नंत विलयति ॥५२९ ॥ अन्वयार्थ- (षिपनिक भाव संजुत्तं) क्षायिक भाव में लीन रहने से (दण्ड कपाटेन ईर्ज पंथ सुसमयं) जब केवली समुद्घात होता है, तब दंड, कपाट, प्रतर, लोक पूरण रूप से आत्मा के प्रदेश सर्व लोकाकाश में फैल जाते हैं और अपने में संकुचित हो जाते हैं (विन्यान न्यान सुद्धं) इससे शुद्ध ज्ञानमयी आत्मा के प्रदेश, विज्ञान घन रूप शुद्ध हो जाते हैं (सिद्धं संसार सरनि विलयं च) आयु कर्म के पूर्ण होते ही सिद्ध पद हो जाता है, सारे संसार का परिभ्रमण छूट जाता है और शेष अघातिया कर्म भी क्षय हो जाते हैं। (पिपिऊन कम्म तिविह) तीनों प्रकार के कर्म-द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म क्षय हो जाते हैं (षडी सुभावेन न्यान उववंनं) खड़िया के समान श्वेत व शुद्ध स्वभाव का ज्ञान पैदा होता है (सुद्ध सहावं पिच्छदि) ऐसे अपने शुद्ध स्वभाव को जानने पहिचानने, उसमें रहने से (कम्मानं बन्ध नंत विलयंति) अनंत कर्मों के बंध विला जाते हैं। विशेषार्थ - केवलज्ञान प्रगट होने पर जब आत्मा अपने क्षायिक भाव में रहता है तब आयु के अंत में केवली समुद्घात होता है जिसमें दंड, कपाट, प्रतर, लोक पूरण रूप से आत्मा के प्रदेश सर्व लोकाकाश में फैल जाते हैं और अपने में संकुचित हो जाते हैं । इससे शुद्ध ज्ञानमयी आत्मा के प्रदेश विज्ञानघन रूप शुद्ध हो जाते हैं, तब आयुकर्म के पूर्ण होते ही शेष अघातिया कर्म भी क्षय हो जाते हैं, संसार परिभ्रमण विला जाता है, सिद्ध पद प्रगट हो जाता है। जो निर्विकार चैतन्य चमत्कार मात्र आत्म स्वभाव को और उसके विकार *करने वाले बंध के स्वभाव को जानकर, बंधों से विरक्त होता है वही समस्त * कर्मों से मुक्त होता है। जब केवली अरिहंत परमात्मा के आयुकर्म की स्थिति कम हो व शेष कर्मों की स्थिति अधिक हो तब आयुकर्म के बराबर शेष अघातिया कर्मों की स्थिति करने के लिये आठ समय में केवली समुद्घात होता है फिर चौदहवें गुणस्थान में जाकर सर्व शेष कर्मों का क्षय होकर सिद्ध हो जाते हैं। जैसे-खडिया बिल्कुल श्वेत होती है वैसे ही आत्मा का निज भाव ॐ बिल्कुल शुद्ध वीतराग है । कषायों के रंग से रंजित नहीं है। इसी शद्धोपयोग भाव में रमण करने से अनंत कर्मों के बंध विला जाते हैं, अरिहंत व सिद्धपद हो जाता है। जैसे-श्वेत गुण से परिपूर्ण स्वभाव वाली कलई स्वयं दीवार आदि पर द्रव्य के स्वभाव रूप परिणमित न होती हुई और दीवार आदि पर द्रव्य को अपने स्वभाव रूप परिणमित न कराती हुई, दीवार आदि पर द्रव्य जिसको निमित्त हैं, ऐसे अपने श्वेत गुण से परिपूर्ण स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होती हुई कलई जिसको निमित्त है, ऐसे दीवार आदि के स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए दीवार आदि पर द्रव्य को अपने खड़िया के स्वभाव से श्वेत करती है ऐसा व्यवहार किया जाता है। इसी प्रकार शुद्धनय से आत्मा का एक चेतना मात्र स्वभाव है, उसके परिणाम देखना जानना, श्रद्धा करना, निवृत्त होना इत्यादि हैं। वहां निश्चय नय से विचार किया जाये तो आत्मा को पर द्रव्य का ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, दर्शक नहीं कहा जा सकता क्योंकि पर द्रव्य के और आत्मा के निश्चय से कोई संबंध ही नहीं है। जैसे-चांदनी पृथ्वी को उज्ज्वल करती है किंतु पृथ्वी चांदनी की किंचित् मात्र भी नहीं होती, इसी प्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता है किंतु ज्ञेय ज्ञान का किंचित् मात्र भी नहीं होता। आत्मा ज्ञान स्वभावी है इसलिये उसकी स्वच्छता में ज्ञेय स्वयमेव झलकता है किंतु ज्ञान में उन ज्ञेयों का प्रवेश नहीं होता। ऐसा सर्व विशुद्ध ज्ञान जिसको प्रगट होता है, जो अपने शुद्ध स्वभाव को जानता है, उसके अनंत कर्मों का बंध विला जाता है तथा तीनों कर्मों का क्षय हो जाता है। प्रश्न- यह स्थिति कब और कैसे बनती है? - इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंकमल सुभाव संजुत्तं, विपिओ कम्मान तिविहि जोएन। गगनं तु नंत दिह, पन नन्त दिहि कम्म विलयंति ॥५३०॥ नन्त प्रकारं जाने, चरनं चरति सुख दंसनं ममलं । नन्दं परमानन्दं, जाता उववन्न कम्म विपनं च ॥ ५३१॥ E-E-5-16--15*-E

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