Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 281
________________ -*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी तो प्राप्त ही है, गम्य ही है, इसे कहां ढूंढ रहे हो, कहां देख रहे हो ? परमात्मा अपने ही अंतर में है। २५. सुनियं भाव (सुनना, चर्चा करना) मोक्षमार्ग की चर्चा कर रहे हो, सुन रहे हो, अपने ज्ञान स्वभाव की चर्चा करो, सुनो अनुभव करो इससे कर्म क्षय होते हैं। - जिसको निर्वाण, मोक्ष ही इष्ट उपादेय है, वह चारों गतियों की सर्व कर्म जनित दशाओं को त्यागने योग्य समझता है, वह निश्चय से जानता है कि मैं सर्व प्रकार शुद्ध सिद्ध समान हूं। व्यवहार दृष्टि में कर्म का संयोग है सो त्यागने योग्य है। जो संसारवास में क्षणमात्र भी रहना नहीं चाहता है वह सम्यकदृष्टि साधक है। वह जानता है कि मुक्ति का मार्ग एक मात्र अपने ही शुद्धात्मा के शुद्ध स्वभाव में रमण रूप शुद्धोपयोग ही है। जब तक चित्त परद्रव्य के व्यवहार में रहता है, पर की ओर लक्ष्य, दृष्टि रहती है तब तक कठिन कठिन तप करता हुआ भी मोक्ष को नहीं पाता है; परंतु शुद्धात्मानुभूति सहित शुद्धोपयोग होने पर शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। सिद्ध पद का मार्ग, मोक्ष का पंथ, आत्मा के स्वभाव को इष्ट प्रिय करके उसके आश्रय से निर्मल पर्याय रूप कार्य करना, वह सिद्ध का मार्ग है। जो ऐसे आत्मा को तो इष्ट न करे और अन्य कार्यों को इष्ट माने वह तो सत् के मार्ग पर भी नहीं आया है तो फिर उसे सत् के फलरूप मोक्ष की प्राप्ति कहां से होगी ? रागादि होने पर भी जिसने अंतर्मुख होकर अपने चिदानंद स्वभाव को ही इष्ट किया है वह तो सत् के मार्ग पर लगा हुआ साधक है और वह सत् के फलरूप सिद्ध पद को अल्पकाल में अवश्य प्राप्त करेगा । २६. अनुभवंति भाव, २७. लीन भाव अनुभवति अरू सर्व अनुभावति संसार सरनि विगतं च । लीनं च परम तत्त्वं, लीनार्यति मुक्ति कम्म गलिये च ।। ५१० ।। अन्वयार्थ (अनुभवंति अरूव रूवं) आत्मा के अमूर्तिक, अरूपी स्वरूप का अनुभव करना चाहते हो ( अनुभावंति संसार सरनि विगतं च ) मैं स्वयं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूं, ऐसा अनुभव करो तो संसार का परिभ्रमण छूट जाये (लीनं च परम तत्त्वं) परम तत्त्व में लीन होना चाहते हो (लीनायंति मुक्ति कम्म गलियं च ) अपने मुक्त स्वभाव में लीन हो जाओ तो सारे कर्म क्षय हो जाते हैं। - २८१ गाथा ५१०-*-*-*-*-* विशेषार्थ - २६. अनुभवंति भाव- ( अनुभव करने का भाव ) आत्मा के अरूपी स्वरूप का अनुभव करते हो। अरूपी तो पर द्रव्य और भी हैं, फिर किसका अनुभव करते हो ? मैं स्वयं सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा चैतन्यतत्त्व हूं ऐसा अनुभव करो, तो संसार परिभ्रमण ही छूट जाये । २७. लीन भाव - (एकाकार, तल्लीन होने के भाव ) परमतत्त्व में लीन होना चाहते हो, यह भी अहं भाव भेद दृष्टि है। मैं मुक्त, शुद्ध, सिद्ध हूं, इसमें लीन रहो तो सारे कर्म क्षय हो जायें । एक द्रव्य, दूसरे द्रव्य से भिन्न द्रव्य के अनंत गुणों में प्रत्येक गुण परस्पर भिन्न और उस प्रत्येक गुण की प्रति समय की पर्यायें भी भिन्न-भिन्न स्वतंत्र हैं। अनंतगुणों की पर्यायें एक साथ हैं; परंतु उनमें से किसी एक गुण की पर्याय की दूसरे गुण की पर्याय के साथ एकता नहीं होती और एक ही गुण की क्रमशः होने वाली पर्यायों में भी एक गुण की पर्याय पूर्व समय की पर्याय रूप नहीं होती और न पीछे की पर्याय रूप ही होती है। इस प्रकार प्रत्येक गुण की प्रत्येक पर्याय स्वतंत्र है। गुण परस्पर भिन्न हैं और पर्यायें भी परस्पर भिन्न हैं। एक गुण के कारण दूसरे गुण की अवस्था नहीं होती। वीर्य गुण की पुरुषार्थ पर्याय के कारण ज्ञान की अवस्था नहीं होती और न ज्ञान के कारण पुरुषार्थ की अवस्था होती है । पुरुषार्थ की अवस्था वीर्यगुण से होती है और ज्ञान की अवस्था ज्ञान गुण से होती है। प्रत्येक गुण की अवस्था में अपना स्वतंत्र सामर्थ्य है इसलिये प्रत्येक पर्याय स्वयं अपने सामर्थ्य से ही अपनी रचना करती है। पर्याय का कारण पर तो नहीं है और द्रव्य गुण भी नहीं हैं, पर्याय स्वयं ही अपना कारण है । एक ही समय में स्वयं ही कारण और कार्य है इसलिये वास्तव में कारण कार्य के भेद करना वह व्यवहार है। प्रत्येक द्रव्य अपने रूप से सत्, प्रत्येक गुण अपने रूप से सत् और एक-एक समय की प्रत्येक पर्याय भी अपने-अपने स्वरूप से सत् है । ऐसे सत्ता स्वरूप को उसी प्रकार जान लेना है, इसमें कारण कार्य के भेद का विकल्प ही कहां है । इस प्रकार अभेद वस्तु निज शुद्धात्म स्वरूप जैसा है, वैसा का वैसा अनुभव प्रमाण मान लेना ही मुक्ति है। आत्मा में अनंत गुण हैं, उस प्रत्येक गुण का लक्षण भिन्न-भिन्न है परंतु आत्मा के ज्ञान मात्र भाव में वे सब आ जाते हैं। अनंत गुणों से अभेद आत्मा 器

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