Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 271
________________ गाथा-४९४,४९५*- ---2---- -E-5-18-5-16 E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी निर्वाण उसे कहते हैं जहां आत्मा सर्व राग-द्वेष मोहादि दोषों से मुक्त * होकर व सर्व कर्म कलंक से छूटकर, शुद्ध स्वर्ण के समान पूर्ण शुद्ध अपने * आप में हो जावे और फिर सदा ही शुद्ध भावों में कल्लोल करे व निरंतर *आनंदामृत का स्वाद लेवे, यह आत्मा का स्वाभाविक पद है। इस निर्वाण का साधन भी अपने ही आत्मा को आत्मा रूप समझकर उसी का वैसा ही ध्यान करना है। निश्चय से ऐसा समझना चाहिये कि मोक्ष का मार्ग एक आत्म ध्यान की अग्नि का जलना, शुद्धोपयोग रूप ही है। एक आत्मानुभव, आत्मा का आत्मा रूप ज्ञान है जो आप ही आपको शुद्ध करता है। जब कर्मों का बंध राग-द्वेष, मोह से होता है तो कर्मों का क्षय वीतराग भाव से होता है। वीतराग भाव अपने ही आत्मा का राग-द्वेष, मोह रहित परिणमन है। निश्चय से परम पदार्थ एक आत्मा है, वही अपने स्वभाव में एक ही काल में परिणमन करने व जानने से समय है, वही एक ज्ञानमय निर्विकार होने से शुद्ध है, वही स्वतंत्र चैतन्यमय होने से केवली है, वही मनन मात्र होने से मुनि है, वही ज्ञानमय होने से ज्ञानी है। जो मुनि ऐसे अपने ही आत्मा के स्वभाव में स्थिर होते हैं, आत्मस्थ होते हैं, वे ही निर्वाण को पाते हैं। त्रिविधि योग से अपने आत्मा को आत्मा के द्वारा रोककर जो आत्मा परद्रव्यों की इच्छा से विरक्त हो, सर्व परिग्रह की इच्छा से रहित हो, दर्शन ज्ञान मयी आत्मा में स्थिर बैठकर आपसे अपने को ही ध्याता है। भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म को रंचमात्र भी स्पर्श नहीं करता है। केवल एक शुद्ध भाव का ही अनुभव करता है, उसके सारे पूर्वबद्ध कर्म क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। प्रश्न-यह सब कैसे होता है? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंवीजेच सिद्ध सिद्धं, तारन तरनं च अन्मोय सहकारं। हितमित परिनइ जुत्तं, कोमल परिनाम न्यान सहकारं ॥ ४९४ ॥ सिद्धं च सव्व सिद्धं, सिद्धं अंगं च दिगंतरं दिलु । सिद्धं अर्थ तिअर्थ, समय समय दिस्टि अन्मोयं ॥ ४९५ ॥ अन्वयार्थ -(वीजं च सिद्ध सिद्ध) पुरुषार्थ करो, पुरुषार्थ करने से ही ************ सिद्ध, सिद्ध हुए हैं (तारन तरनं च अन्मोय सहकारं) पुरुषार्थ ही तारण तरण बनाने वाला है, इसी का आलंबन और सहकार करो (हितमित परिनइ जुत्तं) यही हितकारी, प्रिय इष्ट है, इसी रूप परिणमन में लगो (कोमल परिनाम न्यान सहकारं) पुरुषार्थ ही कोमल स्वभाव रूप ज्ञान का सहकारी है। (सिद्धं च सव्व सिद्ध) सिद्ध परमात्मा जिन्होंने सर्व सिद्धि प्राप्त की है (सिद्धं अंगं च दिगंतरं दिट्ठ) जिन्होंने द्वादशांग वाणी का ध्येय सिद्ध कर लिया अथवा सिद्ध के आठ अंग प्रगट हो गये तथा जिन्होंने सर्व लोकालोक को ज्ञान द्वारा जान लिया है (सिद्ध अर्थ तिअर्थ) सिद्ध परमात्मा ने अपने प्रयोजनीय रत्नत्रय स्वरूप को प्राप्त कर लिया है (समर्थ्य समय दिस्टि अन्मोयं) यह सब सामर्थ्य शक्ति, पुरुषार्थ आत्मा का है जो दृष्टि के आलंबन से सिद्ध पद प्राप्त किया। विशेषार्थ - सिद्ध पद मुक्ति अपने पुरुषार्थ से प्रगट होती है। पुरुषार्थ करो, आत्म पुरुषार्थ से ही सिद्ध, सिद्ध परमात्मा हुए हैं ? आत्मा अनंतवीर्य का धारी है। अपना पुरुषार्थ ही तारण तरण बनाने वाला है, इसी का आलंबन लो,सहकार करो यही हितकारी इष्ट है, इसी रूप परिणमन में लगो, अपनी पवित्र भावना से ज्ञान का सहकार करो। सिद्ध परमात्मा ने रत्नत्रय धर्म का सार प्राप्त कर लिया है, आत्मा से परमात्मा हुए हैं, नित्य परमानंद में मगन हैं, जो सर्व अंग और लोकालोक को प्रकाशित करने वाले हैं। ऐसा सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा मैं हूं, ऐसा अपना वीर्य प्रगट करो। आत्मा में वह सामर्थ्य है जो दृष्टि के आलंबन से सिद्ध परमात्मा होता है। ___ मोक्ष का सुख या सिद्ध भगवान का सुख आत्मा का स्वाभाविक व अतीन्द्रिय गुण है। यह अनंत चतुष्टय स्वरूप, शुद्ध परमानंद, सिद्ध स्वरूप हर एक आत्मा का स्वभाव है । उसका आवरण-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय,अंतराय चारों ही घातिया कर्मों ने कर रखा है, जब अपना आत्म पुरुषार्थ जाग्रत होता है । उपयोग शुद्धात्मा में तल्लीन होता है, उस समय वीतराग परिणति, शुद्धोपयोग से पूर्वबद्ध कर्म क्षय हो जाते हैं व केवलज्ञान स्वरूप अरिहंत पद प्रगट हो जाता है। शेष अघातिया कर्म नाम, आयु, गोत्र, वेदनीय के क्षय होने पर, सिद्ध पद, मोक्ष की प्राप्ति होती है। शुद्धात्मा के स्वभाव की भावना ही एक संसार सागर से पार करने वाली * KHEKAR २७१

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