Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 266
________________ गाथा-४८६,४८७*-12--21-2---- - E--- E- E * ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी के होने पर सारी शंकायें विला जाती हैं। मैं पूर्ण शुद्ध, मुक्त, केवलज्ञान * स्वभावी, धुवतत्त्व शुद्धात्मा सिद्ध परमात्मा हूं। ऐसे अपने सत्स्वरूप में नि:शंकित होने पर आठों अंग सहित नवीन कर्म का संवर करता हुआ तथा ॐ पूर्व में स्वापराध से बांधे हुए कर्मों की अपने निर्जरा योग्य परिणामों के उठान से क्षय करता हुआ वह सम्यक्दृष्टि जीव स्वयं स्वानुभवोत्पन्न अत्यंत आनंद के रस से भरा हुआ आदि, अंत और मध्य भाव से रहित ज्ञानमय होकर आनंद विभोर होकर नृत्य करता है, आनंदमय रहता है इससे सारे कर्म क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार निःशंकित अंग की परिपूर्णता होने से नवीन बंध को रोकता हुआ और अपने आठों अंगों से युक्त होने के कारण, निर्जरा प्रगट होने से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश करता हुआ,सम्यकदृष्टि जीव स्वयं निज रस में आनंदित ज्ञान रूप होकर नृत्य करता है। मेरे ज्ञान के मति श्रुत अंश स्वतंत्र हैं उन्हें किसी पर का अवलंबन नहीं है, मैं ज्ञान स्वभावी शुद्ध चैतन्य मात्र हूं, ऐसी प्रतीति, दृढ श्रद्धा निःशंकित होने पर किसी निमित्त का अथवा पर का लक्ष्य नहीं रहता। सामान्य स्वभाव की ओर ही लक्ष्य रहता है, इस सामान्य स्वभाव के बल से जीव को पूर्णता का पुरुषार्थ होता है। पहले पर के निमित्त से ज्ञान का होना माना था, इंद्रिय ज्ञान से वह ज्ञान पर लक्ष्य में अटक जाता था किंतु स्वाधीन स्वभाव से ज्ञान होता है ऐसी प्रतीति नि:शंकित होने पर ज्ञान को कहीं भी रुकने का नहीं रहता। मेरे ज्ञान में पर का अवलंबन नहीं है, असाधारण ज्ञान का ही अवलंबन है, इस प्रकार सामान्य स्वभाव के कारण से जो ज्ञान परिणमित होता है, उस ज्ञान को तोड़ने वाला कोई है ही नहीं अर्थात् स्वाश्रय से जो ज्ञान प्रगट हुआ है, वह ज्ञान अल्पकाल में ही केवलज्ञान को अवश्य प्राप्त करेगा । ज्ञान के अवलंबन से ज्ञान कार्य करता है ऐसी प्रतीति नि:शंकता में केवलज्ञान समा जाता है। जिस काल में जिस वस्तु की जो अवस्था सर्वज्ञ देव के ज्ञान में ज्ञात हुई है उसी क्रम से उसकी वह अवस्था होगी, भगवान तीर्थंकर देव भी उसे बदलने * में समर्थ नहीं हैं, यह कहने में वास्तव में अपने ज्ञान की नि:शंकता है। सर्वज्ञ * देव मात्र ज्ञाता हैं किंतु वे किसी भी तरह का परिवर्तन करने में समर्थ नहीं हैं तब फिर मैं तो कर ही क्या सकता हूं? मैं भी मात्र ज्ञाता ही हूं इस प्रकार उसे अपने ज्ञान की पूर्णता की भावना का बल है। पर में कर्तृत्व की बुद्धि छूट गई है,इसी से पूर्वबद्ध कर्म क्षय होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। अनंत पदार्थों को जानने वाले, अनंत सामर्थ्य से परिपूर्ण और भवरहित केवलज्ञान का जिस ज्ञान ने निर्णय किया, उस ज्ञान ने अपने पुरुषार्थ के द्वारा निर्णय किया है, जिसने भवरहित केवलज्ञान को प्रतीति में लिया है उसने राग में लिप्त होकर प्रतीति नहीं की किंतु राग से पृथक् होकर, अपने ज्ञान स्वभाव में स्थित होकर भव रहित केवलज्ञान की प्रतीति की है, जिस ज्ञान ने ज्ञान में स्थिर होकर भवरहित केवलज्ञान की प्रतीति की है वह ज्ञान स्वयं भवरहित है और इसलिये उस ज्ञान में भव की शंका नहीं है। पहले केवलज्ञान की प्रतीति नहीं थी, तब वह अनंत भव की शंका में झूलता रहता था और अब प्रतीति होने पर अनंत भव की शंका दूर हो गई तथा एक या दो भव में मोक्ष के लिये ज्ञान नि:शंक हो गया है, उस ज्ञान में अनंत पुरुषार्थ निहित है। इस प्रकार सर्वज्ञ भगवान ने अपने केवलज्ञान में जैसा देखा है वैसा ही होता है, ऐसी सर्वज्ञ की यथार्थ श्रद्धा में अपनी भव रहितता का निर्णय समाविष्ट हो जाता है अर्थात् उसमें मोक्ष का पुरुषार्थ आ जाता है । सर्वज्ञ के यथार्थ निर्णय के बल से मोक्षमार्ग प्रारंभ हो जाता है। सभी द्रव्यों की तरह अपने द्रव्य की अवस्था भी क्रमबद्ध ही है, जैसे अन्य द्रव्यों की क्रमबद्ध पर्याय इस जीव से नहीं होती, वैसे ही इस जीव की क्रमबद्ध पर्याय अन्य द्रव्यों से नहीं होती। अपनी क्रमबद्ध पर्याय के निर्णय के लिये अपने द्रव्य स्वभाव में ही देखा जाता है कि मेरी पर्याय रूप तो मेरा द्रव्य ही होता है। स्वद्रव्य में राग-द्वेष नहीं है, कोई परद्रव्य मुझे राग-द्वेष नहीं कराता। पर्याय में जो अल्प राग-द्वेष है वह मेरी निर्बलता के कारण से है, वह निर्बलता भी मेरे द्रव्य स्वभाव में नहीं है। इस प्रकार पर में न देखकर अपने स्वभाव में ही देखना रह जाता है। स्वभाव के बल से अल्पकाल में राग को दूर करके वह केवलज्ञान को अवश्य प्रगट करेगा । बस इसी ज्ञान को क्रमबद्ध पर्याय की श्रद्धा है । इस जीव ने ही सर्वज्ञ को यथार्थतया जाना है और यही जीव स्वभाव दृष्टि से साधक हुआ है, उसका फल सर्वज्ञ दशा मुक्ति की प्राप्ति है। २६६

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