Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

View full book text
Previous | Next

Page 261
________________ *-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी प्रकृति के उदय से पर पदार्थों में आत्म बुद्धि पैदा होती है, इसी को पर्याय बुद्धि कहते हैं अर्थात् कर्मोदय से मिली हुई शरीरादि सामग्री को ही जीव अपना स्वरूप समझ लेता है, इस अन्यथा बुद्धि से ही सप्त प्रकार के भय उत्पन्न होते हैं- इहलोक भय, परलोक भय, मरण भय, वेदना भय, अरक्षा भय, अगुप्ति भय और अकस्मात भय। जब इनमें से किसी प्रकार का भय हो तो जानना चाहिये कि मिथ्यात्व कर्म के उदय से हुआ है। यहाँ कोई शंका करे कि भय तो श्रावकों तथा मुनियों के भी होता है क्योंकि भय प्रकृति का उदय अष्टम गुणस्थान तक है तो भय का अभाव सम्यक्त्वी के कैसे संभव हो सकता है ? उसका समाधान करते हैं कि सम्यकदृष्टि को कर्म के उदय का स्वामित्व नहीं है और न वह परद्रव्य द्वारा अपने द्रव्यत्व का नाश मानता है, पर्याय का स्वभाव विनाशीक जानता है इसलिये चारित्रमोह सम्बंधी भय होते हुए भी दर्शन माह सम्बंधी भय का तथा तत्वार्थ श्रद्धान में शंका का अभाव होने से वह नि:शंक और निर्भय ही है। यद्यपि वर्तमान पीड़ा सहने में असक्त होने के कारण भय से भागता, इलाज आदि भी कराता है तथापि तत्वार्थ श्रद्धान से डिगने रूप दर्शन मोह सम्बंधी भय लेशमात्र भी उसे उत्पन्न नहीं होता, अपने आत्मज्ञान श्रद्धान में निःशंक रहता है। जिनाज्ञानुसार निर्ग्रन्थ मार्ग में वीतराग स्वरूप की आराधना कर परमात्म स्वरूप की प्राप्ति करूंगा, उसमें किसी प्रकार की शंका नहीं है, ऐसा दृढ़ विश्वास साधक ने अपने आत्मा में निश्चित किया है, जिसकी अनुभव दशा में इस प्रकार निःशंकता हो उसका एक ही भव बाकी है। ममल स्वभाव की दृढ़ता से सब कर्म क्षय हो जाते हैं। आत्मा के त्रिकाली ध्रुव स्वभाव की श्रद्धा ही निःशंकित अंग है। शंका या भय से रहित होकर दृढ़ता पूर्वक आत्म स्वरूप का श्रद्धान, अपने ज्ञान स्वभाव में रहने से पूर्व कर्म बंधोदय विला जाते हैं। जो सम्यक दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान, श्रद्धान में निःशंक हो, भय के निमित्त से स्वरूप से चलित न हो अथवा संदेह युक्त न हो उसको निःशंकित अंग होता है तथा पूर्व कर्म क्षय हो जाते हैं। २६१ गाथा ४७४, ४७५ २. नि:कांक्षित अंग - - कंच्या रहित सुभाव, इंद धरनिंद पञ्जाव नहु पिच्छं । चक्र पज्जाव विमुक्कं, पज्जावं अन्यान सुयं षिपनं च ॥ ४७४ ॥ पज्जाव अनिस्ट रूवं, कंप्या रहित ममल ससरूवं । पज्जाव कंत्र्य विलयं, न्यानं अन्मोय कंच्य रहिएन ।। ४७५ ।। अन्वयार्थ - (कंप्या रहित सुभावं ) कांक्षा रहित स्वभाव अर्थात् किसी भी प्रकार की कामना वासना का न होना नि:कांक्षित अंग है (इंद धरनिंद पज्जाव नहु पिच्छं) वहाँ इंद्र तथा धरणेन्द्र की पर्याय तरफ भी नहीं देखता ( चक्र पज्जाव विमुक्कं ) चक्रवर्ती की पर्याय से भी कोई प्रयोजन नहीं है (पज्जावं अन्यान सुयं षिपनं च ) इससे अज्ञान की पर्याय स्वयं क्षय हो जाती है। (पज्जाव अनिस्ट रूवं) सर्व ही शरीर रूपी पर्याय अनिष्ट हैं, आत्मा के लिये हितकारी नहीं हैं ( कंष्या रहित ममल ससरूवं ) सर्व कांक्षा रहित ममल अपना आत्म स्वरूप है (पज्जाव कंष्य विलयं) किसी भी कर्म जनित पर्याय की कांक्षा नहीं है (न्यानं अन्मोय कंष्य रहिएन) ज्ञान स्वभाव के आश्रय सम्यक दृष्टि कांक्षा रहित होता है। विशेषार्थ विषय भोगों की अभिलाषा का नाम कांक्षा या वांछा है, यह भोगाभिलाषा मिथ्यात्व कर्म के उदय से होती है, इसके चिन्ह यह हैं- पहले भोगे हुए भोगों की वांछा, उन भोगों की मुख्य क्रिया की वांछा, कर्म और कर्म के फल की वांछा, मिथ्यादृष्टियों को भोगों की प्राप्ति देखकर उनको अपने मन में भले जानना अथवा इंद्रियों की रुचि के विरुद्ध भोगों में उद्वेग रूप होना, यह सब सांसारिक वांछायें हैं। जिस पुरुष के अंतर में यह न हों वह नि:कांक्षित अंगधारी है। वह इंद्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती के सुखोपभोग को भी नहीं चाहता । सम्यकदृष्टि यद्यपि कर्म के उदय की प्रबलता से इंद्रियों को वश करने में असमर्थ है इसलिये पांच इंद्रियों के विषयों का सेवन करता है तो भी उसको उनसे रुचि नहीं है इसलिये अज्ञान जनित पर्यायें अपने आप क्षय हो जाती हैं। - ज्ञानी पुरुष व्रतादि शुभाचरण करता हुआ भी उनके उदय जनित शुभ फलों की वांछा नहीं करता, यहाँ तक कि व्रतादि शुभाचरणों को आत्म स्वरूप *

Loading...

Page Navigation
1 ... 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318