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*** ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
(न्यान आवरन स उत्तं) उसे ही ज्ञान का आवरण कहते हैं जो (दर्सन * मोहंध देई सहकारं) दर्शन मोहांध के सहकार से होता है अर्थात् मिथ्यादर्शन
के साथ मिथ्याज्ञान ही होता है जिससे (संसार सरनि बूडं) संसार समुद्र में * डूबता है (चौगइ संसार भावना होई) और चारों गति रूप संसार परिभ्रमण की * भावना होती है।
विशेषार्थ- मिथ्यादृष्टि को आत्म स्वरूप का श्रद्धान न होने से वह दर्शन मोह में अंधा अज्ञानी रहता है तथा अज्ञान का ही प्रचार करता है अर्थात् बाह्य क्रियाकांड पुण्य-पाप में ही लगा रहता है और इसी को धर्म मानता है तथा दूसरों को बताता है इससे तीव्र ज्ञानावरण कर्म को बांधता है। जब तक मिथ्यात्व का तीव्र उदय रहता है तब तक स्व-पर का यथार्थ ज्ञान भी नहीं होने पाता है । वह पर्याय में अहंकार करके रात-दिन शरीर के सुख में मग्न रहता है। कभी कुछ पुण्य बांध लेता है तो देव गति, मनुष्य गति में जन्मता है और यदि पाप बांधता है तो पशु गति और नरक गति में चला जाता है।
दर्शन मोह से ज्ञान पर आवरण डालकर संसार समुद्र में डूबता रहता है। सम्यज्ञान मोक्ष का कारण है वह सम्यकदर्शन के साथ होता है। भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति ही निश्चय सम्यकदर्शन है. इसके होने पर ही सम्यज्ञान होता है तभी इस संसार परिभ्रमण से छुटकारा होता है।
सम्यक् दर्शन पूर्वक सम्यक् ज्ञान होता है तथा सम्यक् दर्शन सम्यज्ञान पूर्वक ही सम्यक्चारित्र होता है और इन तीनों की एकता अर्थात् तीनों का एक साथ होना ही मोक्षमार्ग है।
सम्यज्ञान का आभूषण यह परमात्म तत्त्व समस्त विकल्प समूह से सर्वथा मुक्त है। धुवतत्त्व में अनेक प्रकार के विकल्पों के समूह का अभाव है। सर्वनय संबंधी अनेक प्रकार के विचार भी प्रपंच हैं, यह भी त्रिकाली परमात्म तत्त्व में नहीं हैं। इन विकल्पों की बात तो दूर परंतु शुद्ध पर्याय की श्रेणी निर्मल पर्याय की धारा रूप ध्यानावली का भी परमात्म तत्व में अभाव है।
स्वयं को आत्मज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव प्रमाण हुआ हो, राग से भिन्न पड़कर ज्ञान स्वरूपी भगवान का, अतीन्द्रिय आनंद का वेदन हुआ हो उसी * का नाम सम्यक्दर्शन है तथा ज्ञान में यह आत्मा पर की अपेक्षा बिना प्रत्यक्ष * जाना गया हो, जानने वाले को स्वयं को आत्मा प्रत्यक्ष हुआ हो, वेदन में
आया हो उसी को सम्यक्ज्ञान कहते हैं तभी इस प्रत्यक्षता सहित अनुमान से ***** * * ***
गाथा- २२३,२२४ ------ ---- - अन्य को जान सकते हैं: परंतु जिन्हें आत्मा प्रत्यक्ष ही नहीं हुआ ऐसे अन्यों द्वारा केवल अनुमान से ही आत्मा ज्ञात होने योग्य नहीं है। अज्ञानी स्वच्छंदी ही है, मिथ्यात्व है सो ही महान पाप और स्वच्छंद है । संसार में शुभाशुभ भाव हैं सो दु:ख रूप हैं, उनके फल में चारों गतियां मिलती हैं, उनमें अनेक प्रकार के दु:ख व आकुलता होती है। ऐसा अंतरंग में वेदन होना चाहिये, शुभाशुभ भाव दु:ख रूप ही हैं ऐसा लगने पर ही संसार से थकान लगती है और तभी सम्यक्दर्शन, सम्यकज्ञान, सम्यक्चारित्र पूर्वक मुक्ति मार्ग प्रारंभ होता है।
प्रश्न - सम्यक् चारित्र क्या है, उसका स्वरूप क्या है? दर्शन मोहांध इसका कैसा पालन करता है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैंदर्सन संमिक दस, संमिक न्यानं च दर्सए सुद्ध। न्यानं दंसन चरनं, दर्सन मोहंध चरन आवरनं ।। २२३ ॥ दर्सन न्यान संजुत्तो, चरनं दुविहंपि संजदो होइ। दर्सन मोहंध असत्यं, चरनं आवरन सरनि संसारे ।। २२४ ।।
अन्वयार्थ - (दर्सन संमिक दर्स) आत्मानुभूति युत श्रद्धान सम्यक् दर्शन है (संमिक न्यानं च दर्सए सुद्ध) और शुद्धात्म स्वरूप की यथार्थ प्रतीति सम्यक् ज्ञान है (न्यानं दंसन चरनं) सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान सहित सम्यक्चारित्र होता है (दर्सन मोहंध चरन आवरनं) दर्शन मोहांध के चारित्र पर आवरण रहता है।
(दर्सन न्यान संजुत्तो) सम्यक्दर्शन और सम्यज्ञान से संयुक्त होकर भव्य जीव (चरनं दुविहंपि संजदो होइ) दो प्रकार के चारित्र को धारण कर संयमी होता है (दर्सन मोहंध असत्यं) दर्शन मोहांध ऊपर से बनता है अर्थात् बाह्य संयम धारण करता है (चरनं आवरन सरनि संसारे) सम्यक्चारित्र पर आवरण डालकर संसार में ही परिभ्रमण करता है।
विशेषार्थ - आत्मानुभूति युत श्रद्धान सम्यकदर्शन है और शुद्धात्म स्वरूप की यथार्थ प्रतीति सम्यक्ज्ञान है, सम्यक्दर्शन सम्यज्ञान सहित सम्यक्चारित्र होता है। सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्र तीनों की एकता मोक्षमार्ग है।
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