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गाथा-३९१-३९४*12--21-2----
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* ******* ** श्री उपदेश शुद्ध सार जी
निर्जरा पूर्वक मोक्ष होता है।
अभी तक दृष्टि अधिकार में इन सब बातों का स्पष्टीकरण हो गया है। * दृष्टि के अपने ममल स्वभाव में लीन होने से घातिया कर्मों का क्षय होकर * केवलज्ञान अरिहंत पद प्रगट होता है तथा संपूर्ण कर्मों के क्षय हो जाने पर सिद्ध परमपद मुक्ति की प्राप्ति होती है।
प्रश्न-ममल स्वभाव की यह महिमा किस प्रकार है?
इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - इय घाय कम्म मुक्कं, मुक्कं संसार सरनि सल्यं च । कर्म तिविहि विमुक्क, ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं ॥ ३९१ ।।
अन्वयार्थ - (इय घाय कम्म मुक्कं) इस प्रकार दृष्टि की शुद्धि होने तथा ममल स्वभाव की साधना से घातिया कर्मों से छूट जाता है (मुक्कं संसार सरनि सल्यं च) तथा संसार परिभ्रमण की सब शल्यों से छूट जाता है (कम्म तिविहि विमुक्कं) फिर वह तीनों प्रकार के कर्मों से मुक्त हो जाता है (ममल सहावेन सिद्धि संपत्तं) ममल स्वभाव से सिद्धि की संपत्ति अर्थात् सिद्ध पद मुक्ति की प्राप्ति होती है।
विशेषार्थ- सम्यकदर्शन, सम्यक्ज्ञान होने पर जब जीव, द्रव्य दृष्टि से शुद्ध दृष्टि समभाव में होता है तथा ममल स्वभाव की साधना करता है अर्थात् निज स्वभाव में एकाग्र लीन होता है, यही शुद्धोपयोग की स्थिति शुक्ल ध्यान कहलाती है, जिसके एक मुहूर्त अड़तालीस मिनिट ममल स्वभाव में एकाग्र होने पर घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान अरिहंत पद प्रगट हो जाता है। जहाँ सब संसार का परिभ्रमण जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो जाता है तथा तीनों प्रकार के कमों के क्षय होने पर परिपूर्ण मुक्त सिद्ध परमात्मा हो जाता है।
भेदविज्ञान द्वारा आत्मानुभव शुद्ध दृष्टि होने से तथा पर्याय से दृष्टि हटने और ममल स्वभाव में जमने से शुद्धोपयोग रूप शुक्लध्यान प्रगट होता है, जिससे चारों घातिया कर्मों का क्षय होकर केवलज्ञान अरिहंत पद अनंत
चतुष्टय प्रगट हो जाते हैं। आयु के अंत में शेष अघातिया कर्म, भावकर्म, * नोकर्म के क्षय होने पर पूर्ण शुद्ध मुक्त सिद्ध पद प्रगट हो जाता है।
सर्वोत्कृष्ट महिमा का भंडार चैतन्यदेव अनादि अनंत परम पारिणामिक
भाव ममल स्वभाव में स्थित है। यह ममल स्वभाव ध्रुवतत्त्व, परम पवित्र महा महिमावंत है, इसका आश्रय करने से शुद्धि के प्रारंभ से लेकर पूर्णता प्रगट होती है।
जो मलिन हो अथवा अंशत: निर्मल हो अथवा जो अधूरा हो या जो शुद्ध एवं पूर्ण होने पर भी सापेक्ष हो, अधुव हो और त्रैकालिक परिपूर्ण सामर्थ्यवान न हो, उसके आश्रय से शुद्धता प्रगट नहीं होती इसलिये औदयिक भाव, औपशमिक भाव, क्षायोपशमिक भाव और क्षायिक भाव अवलंबन के योग्य नहीं हैं।
जो पूर्ण ममल है, परिपूर्ण है, परम निरपेक्ष है. ध्रव है और त्रैकालिक परिपूर्ण सामर्थ्यवान है, ऐसे अभेद एक परम पारिणामिक भाव ममल स्वभाव का ही आश्रय करने योग्य है, उसी की शरण लेने योग्य है। उसी से सम्यक्दर्शन से लेकर मोक्ष तक की सर्व दशाएं प्राप्त होती हैं।
आत्मा में सहज भाव से विद्यमान ज्ञान, दर्शन, चारित्र आनंद इत्यादि अनंतगुण भी यद्यपि ममल स्वभाव रूप ही हैं तथापि वे चैतन्य द्रव्य के एक-एक अंश रूप होने के कारण उनका भेदरूप से अवलंबन लेने पर साधक को निर्मलता परिणमित नहीं होती ; इसलिये परम पारिणामिक भावरूप अनंतगुण स्वरूप अभेद एक चैतन्य तत्त्व ममल स्वभाव का ही आश्रय करना, वहीं दृष्टि देना, उसी की शरण लेना, उसी का ध्यान करना कि जिससे सर्व कर्मों का क्षय होकर निर्मल पर्यायें स्वयं खिल उठे।
प्रश्न- ममल स्वभाव की दृष्टि से क्या होगा? इसके समाधान में सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं - अन्यान भाव मुक्कं, मिच्छा विषयं च राग संषिपनं । विपियं नन्त अभावं, न्यानं अन्मोय कम्म विपनं च ॥ ३९२ ।। परिनाम अन्यानं, जनरंजन राग सहाव विपनं च । कल रंजन दोष विलयं, मनरंजन गारवं च विलयंति ॥ ३९३ ॥ एवं अनेय रूवं, रूवातीतं च कम्म मोहंध । उत्पन्नं विपिऊन, पिपिओ कम्मानि नंतनंताइ॥३९४ ॥
अन्वयार्थ - (अन्यान भाव मुक्कं) अज्ञान भाव छूट जाता है (मिच्छा
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