Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 242
________________ *-*-*-*------- -*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी स्वभाव में रहो तो यह सब मिथ्या, माया भाव क्षय हो जायेंगे । साधक को अपने सत्स्वरूप, ब्रह्मस्वरूप का ज्ञान होने पर इस माया से भी बचना पड़ता है, यह पूरे जगत का विस्तार माया का प्रपंच है। यह रजोगुण, तमोगुण, सत्वगुण रूप प्रकृति का पूरा विस्तार माया है। एक तरफ ब्रह्म, एक तरफ माया है। अब इतनी सतर्कता सावधानी आवश्यक है कि यह माया के किन्हीं भी भावों में मत उलझो। माया से पूर्णत: विरक्त भिन्न होने पर ही ब्रह्म को उपलब्ध हुआ जाता है। माया का थोड़ा सा भी आकर्षण संसार है। इन कंचन, कामिनी, कीर्ति के किसी भी भाव में मत जुड़ो, अपने ब्रह्म स्वरूप का स्मरण ध्यान रखो, यह सब भाव विला जाने वाले हैं। २६. कषाय भाव कषायं संजुत्तं, कषाय भाव नन्त गलियं च । आवरनंनहु पिच्छं, न्यान सहावेन कम्म गलियं च ।। ४२५ ।। अन्वयार्थ - ( कषायं संजुत्तं) कषायों के भाव में संयुक्त हो रहे हो (कषाय भाव नन्त गलियं च) कषाय के अनंत भाव होते हैं, यह सब गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छं) कषायावरण को मत देखो, यह कौन सी कषाय है, यह कौन सी कषाय के भाव हैं (न्यान सहावेन कम्म गलियं च) तुम तो अपने ज्ञान स्वभाव में रहो, यह सब कर्म कषाय भाव गल जायेंगे । विशेषार्थ २६. कषाय भाव सोलह कषाय- अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ४ x ४ = १६ तथा हास्यादि नौ नो कषाय, यह चारित्र मोहनीय कर्म की प्रकृतियां हैं। इन्हीं के उदय से कषाय भाव होते हैं, जो आत्मा को कर्मों से कसते हैं, बांधते हैं उन्हें कषाय कहते हैं। इसी के दो भेद रूप राग और द्वेष कहलाते हैं। जो जीव को अपने स्वभाव में न आने दे, अपने स्वभाव में न रहने दे, उसका नाम कषाय है। जैसे वस्त्र को रंगने में कषायला पदार्थ लोध, फिटकरी आदि डालने से रंग पक्का हो जाता है, वैसे ही जीव को कर्मों से कषाय ही रंगती है। यह कषाय के अनंत भाव होते हैं, परंतु सब छूट जाने वाले, विला जाने वाले हैं। सम्यक्दर्शन होते ही अनंतानुबंधी कषाय गल जाती है, छूट जाती है। पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कषाय नहीं रहती, छठे गुणस्थान में प्रत्याख्यान कषाय नहीं होती, दसवें गुणस्थान तक संज्वलन कषाय और नौ नोकषाय भाव सब ही विला जाते हैं। - - **> - २४२ गाथा ४२५ -*-*-*-*-*-* जो आत्मगुण को घाते अथवा जिससे आत्मा मलिन (विभाव रूप) होकर बंध अवस्था को प्राप्त हो वह कषाय है, इसके २५ भेद हैं। ४ अनंतानुबंधी - क्रोध, मान, माया, लोभ- यह कषाय भाव अनंत संसार के कारणभूत मिथ्यात्व में तथा अन्याय रूप क्रियाओं में प्रवृत्ति कराने वाले हैं। इनके उदयवश जीव सप्त व्यसनादि पापों को निरर्गल होकर सेवन करता है । ४ अप्रत्याख्यानावरण- क्रोध, मान, माया, लोभ इनके उदय में श्रावक के व्रत रंच मात्र भी नहीं होते तथापि अनंतानुबंधी के अभाव और सम्यक्त्व के सद्भाव से अन्याय रूप विषयों (सप्त व्यसन सेवन) में प्रवृत्ति नहीं होती। इनके उदय से न्याय पूर्वक विषयों में अति लोलुपता रहती है । ४ प्रत्याख्यानावरण- क्रोध, मान, माया, लोभ- यह कषाय यद्यपि मंद है तथापि इनके उदय होते हुए महाव्रत, मुनिव्रत या सकल संयम नहीं हो सकता, इसके क्षयोपशम के अनुसार अणुव्रत देश संयम, श्रावक व्रत हो सकता है। ४ संज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ- यह कषाय अतिमंद है, मुनिव्रत के साथ-साथ इनका उदय होते हुए भी यह संयम को बिगाड़ नहीं सकते, केवल इनके उदय में यथाख्यात चारित्र नहीं हो सकता । नौ नोकषाय- १. हास्य- जिसके उदय से हंसी उत्पन्न हो । २. रति- जिसके उदय से पदार्थों में प्रीति उत्पन्न हो । ३. अरति- जिसके उदय से पदार्थों में अप्रीति उत्पन्न हो । ४. शोक- जिसके उदय से चित्त में खेद रूप उद्वेग उत्पन्न हो । ५. भय- जिसके उदय से डर लगे । ६. जुगुप्सा - जिसके उदय से पदार्थों में घृणा उत्पन्न हो । ७. पुरुषवेद - जिसके उदय से स्त्री से रमने की इच्छा हो । ८. स्त्रीवेद - जिसके उदय से पुरुष में रमने की इच्छा हो । ९. नपुंसकवेद - जिसके उदय से स्त्री-पुरुष दोनों में रमने की इच्छा हो । यह सब कर्मोदय जन्य भाव विला जाने वाले हैं, इन कषाय के आवरण को अर्थात् भावक भाव, उदय जनित भावों को मत देखो कि यह कौन है, यह कैसे हैं, अपने ममल स्वभाव को देखो, उसी में लीन रहो तो यह सब कषाय *

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