Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 248
________________ 克·華克·举惠-窄惠尔惠·常常 *-*-*-*-*-* श्री उपदेश शुद्ध सार जी स्पर्सन सहाव सहियं, स्पर्सन परिनाम सयल गलियं च । आवरनं बहु जुतं अहिंदी न्यान कम्म गलियं च ।। ४३७ ।। अन्वयार्थ (रसन सहाव संजुत्तं) रसना स्वभाव में संयुक्त हो रहे हो ( रसनं परिनाम भाव विरयंति) रसना संबंधी सब भाव छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु दिट्ठ) आवरण को मत देखो (अतींदी न्यान कम्म संषिपनं ) अपने अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभाव में रहने से सब कर्म क्षय हो जाते हैं । ( स्पर्सन सहाव सहियं) स्पर्शन स्वभाव सहित हो रहे हो ( स्पर्सन परिनाम सयल गलियं च) स्पर्शन संबंधी सारे भाव गल जाने वाले हैं (आवरनं नहु जुत्तं) इस कर्मावरण में मत जुड़ो (अतिंदी न्यान कम्म गलियं च ) अपने अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभाव में रहने से सारे कर्म गल जाते हैं। - विशेषार्थ ३७. रसनाभाव - जिव्हा इंद्रिय के दो काम हैं, खाना और बोलना तथा रस स्वाद लेना विशेषता है। यह शरीर का विशेष अंग है। इस विषय के भावों में जुडना अज्ञान है। आत्मा शरीर मन वाणी इंद्रिय से भिन्न अरस अरूपी अस्पर्शी अतीन्द्रिय आनंद का धारी है। अपने ज्ञान स्वभाव में रहने से यह रसना इंद्रिय संबंधी सब भाव विला जाते हैं। ३८. स्पर्शनभाव - स्पर्श द्वारा जो ठंडा, गरम, चिकना, नरम, कड़ा आदि जानने में आता है, यह मात्र त्वचा के संबंध संयोग से होता है, इसके भावों में जुड़ना महा अज्ञान है। शरीर तो जलने गलने वाला है । बालक, युवावस्था, बुढ़ापा में अपने आप क्षीण होता जाता है। यह नोकर्म का आवरण है, इसमें मत जुड़ो, अपने आत्म स्वरूप का ज्ञान ध्यान करने से यह सब कर्म क्षय हो जाते हैं। एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है। शेष दो इंद्रियादि जीवों के जिव्हा, घ्राण, चक्षु और कर्ण में से क्रम से एक-एक अधिक होती है। शरीर नाम कर्म के उदय से यह इंद्रियां होती हैं। जैसे-अहमिन्द्र देव स्वामी सेवक आदि के भेद से रहित, मैं ही हूं, इस प्रकार मानते हुए एक-एक होकर अपने को स्वामी मानते हैं, उसी प्रकार स्पर्शन आदि इंद्रियां भी अपने-अपने विषयों में ज्ञान उत्पन्न करने के लिये अन्य इंद्रियों की अपेक्षा न करते हुए स्वयं समर्थ होती हैं, इस कारण से अहमिन्द्रों के समान इंद्रियों को जानो। जिसने अतीन्द्रिय आनंद का अनुभव किया है उसे बिना आहार आदि के भी अलौकिक आनंद •आता है। उसे शरीर और संसार को छोड़ना तो सरल बात है। 000000000000000000000 २४८ गाथा ४३७-४४० ****** • कषाय में पहले लोभ और इंद्रियों में पहले रसना इंद्रिय को क्यों कहा गया है? प्रश्न - समाधान लोभ कषाय के कारण ही शेष कषायें सक्रिय होती हैं। इसलिये कषाय में पहले लोभ को कहा गया है। साधक को अपने अंतर परिणामों में इसका विशेष ध्यान रखना आवश्यक है। इंद्रियों में रसना इंद्रिय से ही शेष इंद्रियां सक्रिय होतीं हैं। पर वस्तु की चाह के भाव ही लोभ कषाय है। विषयों में रसबुद्धि ही रसना इंद्रिय है। इन दोनों से ही संसार चलता है • और सारा संसारी प्रपंच फैलता है। जिसकी दृष्टि लोभ कषाय और रसना इंद्रिय से तथा उसके भावों से हट जाती है वही साधक मुक्ति पाता है। यहां साधक की साधना की अपेक्षा कथन है । - ३९. ज्ञान भाव, ४०. चक्षुभाव, ४१. श्रोत्रभाव ग्रानं सुभाव संजुत्तं, घ्रानं परिनाम नन्त गलियं च । आवरनं न उवन्नं, अहिंदी परिनाम प्रान विलयंति ।। ४३८ ।। चयं सहाव सहियं, चव्यं परिनाम सयल विरयंति । आवरनं नहु पिच्छदि, अतींदी सभाव चष्य विरयंति ॥ ४३९ ॥ स्रोत्रं सहाव सहियं, स्रोत्रं सहकार परिनाम विरयंति । आवरनं न उत्तं, अतींदी परिनाम स्रोत्र विरवंति ।। ४४० ।। अन्वयार्थ - (घ्रानं सुभाव संजुत्तं) घ्राण स्वभाव में संयुक्त हो रहे हो (घ्रानं परिनाम नन्त गलियं च) घ्राण के अनंत परिणाम सब गल जाने वाले हैं (आवरनं न उवन्नं) आवरण फिर पैदा ही न होगा (अतिंदी परिनाम घ्रान विलयंति) अतीन्द्रिय पारिणामिक भाव का आश्रय लेने पर घ्राण भाव विला जाते हैं । (चष्यं सहाव सहियं ) चक्षु स्वभाव सहित हो रहे हो (चष्यं परिनाम सयल विरयंति) चक्षु इंद्रिय के सारे परिणाम छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छदि) इस आवरण को मत देखो जानो (अतींदी सभाव चष्य विरयंति) अतीन्द्रिय स्वभाव से चक्षु भाव विला जाते हैं। (स्रोत्रं सहाव सहियं) श्रोत्र स्वभाव सहित हो रहे हो (स्रोत्रं सहकार परिनाम विरंयति) कर्ण इंद्रिय से सुनने संबंधी सारे भाव छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु उत्तं) आवरण की चर्चा ही मत करो (अतींदी परिनाम स्रोत्र *

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