Book Title: Updesh Shuddh Sara
Author(s): Gyanand Swami
Publisher: Akhil Bharatiya Taran Taran Jain Samaj

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Page 232
________________ *********** श्री उपदेश शुद्ध सार जी गाथा-४०७-H-RE - - -E-5-18 E दृष्टि रखो। जैसे सिद्ध परमात्मा हैं उनके समान ही अपने स्वभाव की द्रव्यदृष्टि * बनाकर आत्मज्ञानी साधक आत्मा को ध्यावें । जैसे-बीज से मूल व अंकुर होते हैं, वैसे ही मोह के बीज से राग-द्वेष होते हैं इसलिये जो राग-द्वेष को जलाना चाहे, उसे ज्ञान की अग्नि से इस मोह को जलाना चाहिये। जहां तक राग-द्वेष का संबंध है वहां तक कर्म क्षय नहीं होते; इसलिये रागादिक विभावों को तथा बाहरी व भीतरी दोनों प्रकार के विकल्पों को त्यागकर, एकाग्र मन होकर सर्व कर्म मल रहित निरंजन अपने ही ममल स्वभाव को ध्याना चाहिये। प्रश्न - जब सामने यह आवरण चल रहा है, तो ममल स्वभाव में कैसे रहें, शुख दृष्टि कैसे रखें? समाधान - आत्मा का स्वतंत्र स्वभाव सर्व विकारों और कर्मावरण से रहित है। निर्मल स्फटिक के समान है, कुन्दन स्वर्ण के समान है, सूर्य के समान स्व-पर प्रकाशक है। चंद्रमा के समान शांत आत्मानंद अमृत का बरसाने वाला है, कमल के समान सदा प्रफुल्लित निर्लिप्त न्यारा है। उस आत्मा के शुद्ध स्वभाव में कोई भी बाधक कारण नहीं है। किसी भी कर्म परमाणु की शक्ति नहीं है जो उसके स्वरूप में प्रवेश कर सके व कोई विकार उत्पन्न कर सके। आत्मा का स्वभाव परम स्वतंत्र है, उसमें परतंत्रता की कल्पना करना, आत्मा के स्वभाव की निंदा करना है। जो भव्यात्मा सर्व आवरण की मलिन दृष्टि को दूर करके केवल निश्चय स्वभाव की शुद्ध दृष्टि को रखता हुआ देखता है, उसे आत्मा परम स्वतंत्र, परमशुद्ध, परमानंद मय झलकता है। स्वात्मानुभव ही साधक के लिये साध्य प्राप्ति का उपाय है। प्रश्न-भेवज्ञान, तत्वनिर्णय द्वारा वस्त स्वरूप को जान लिया, द्रव्यदृष्टि का अभ्यास कर रहे हैं परंतु अभी यह आवरण तो बाधक बना है इसके लिये और क्या करें? समाधान- भेदज्ञान तत्त्वनिर्णय द्वारा वस्तु स्वरूप को जानने वाले को फिर यह आवरण बाधक नहीं रहता। यह आवरण भूमिका पात्रतानुसार चलता है, होता है; परंतु जिसे अनुभव प्रमाण वस्तु स्वरूप का निर्णय हुआ * हो जो द्रव्यदृष्टि का अभ्यास करे, उसे यह कोई बाधक नहीं होता, तत्समय की योग्यतानुसार चलता है तो वह उसका ज्ञायक है। सम्यक्चारित्र स्वभाव स्थिति में पात्रतानुसार परिणमन चलेगा, उसका भी ज्ञानी ज्ञायक है। कर्मावरण को बाधक मानना, पर की सत्ता को मानना उसे महत्व देना है और यह अज्ञान है। ज्ञानी जिसे स्व स्वरूप की सत्ता शक्ति का बोध है, वह पर की सत्ता मानता ही नहीं है, फिर आवरण बाधक कैसे होगा? अभी अपने ही ज्ञान का परिमार्जन करो। प्रश्न - फिर यह संयोग और पर्यायावरण देखने जानने में तो आता है? समाधान - देखना जानना कोई अपराध नहीं है, वह तो ज्ञायक का स्वभाव है, केवलज्ञान में तीनकाल और तीनलोक के समस्त द्रव्यों का त्रिकालवी परिणमन देखने जानने में आता है। वहां क्या बाधा है? अपना स्वरूप भी केवलज्ञान स्वभावी है, अपनी स्व सत्ता शक्ति का बोध जगाओ, अपने ज्ञान को सूक्ष्म और शुद्ध करो। प्रश्न - यह भाव तो पकड़ में आने लगे पर अभी इनका सही निराकरण नहीं होता? इसी निराकरण के लिये सद्गुरु आगे गाथा कहते हैं ८.आर्तध्यान भावआरति रति सहकारं, आरति परिनाम नन्त विरयंति। आवरनं नहु पिच्छदि, न्यानं अन्मोय कम्म विपनं च ।। ४०७॥ अन्वयार्थ- (आरति रति सहकारं) आर्तध्यान के भावों में रति और ® सहकार करना (आरति परिनाम नन्त विरयंति) आर्तध्यान के सब परिणाम छूट जाने वाले हैं (आवरनं नहु पिच्छदि) आवरण को मत देखो, इसके जानने में मत लगो (न्यानं अन्मोय कम्म षिपनं च) अपने ज्ञान स्वभाव का आलंबन लो, यह सब कर्म बंध और आर्तध्यान क्षय हो जायेंगे। विशेषार्थ-८.आर्तध्यान भाव - दु:खमय परिणामों का होना सो आर्तध्यान है। इसके चार भेद हैं १. वियोगज-इष्ट प्रिय स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदि तथा धर्मात्मा ॐ पुरुषों के वियोग से संक्लेश रूप परिणाम होना। २. अनिष्ट संयोगज-दुःखदायी अप्रिय स्त्री, पुत्र, भाई, पड़ौसी. पश २३२ २१८

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